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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् इनसे भिन्न उपपुराणों का प्रवचन भी मुनियों ने १८ पुराण सुनकर संक्षेप की दृष्टि से किया है। विष्णु पुराण भी यही कहता है महापुराणान्येतानि ह्यष्टादश महामुने! ॥ ३.६.२४ तथा चोपपुराणानि मुनिभिः कथितानि च। सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशा(श) मन्वन्तराणि च। सर्वेष्वेतेषु कथ्यन्ते वंशानुचरितं च यत् ॥ २५ महामुने! ये मैंने अठारह पुराणों के नाम बोले हैं। इसी भाँति मुनियों ने उपपुराण भी कहे हैं। इन सभी में सर्ग आदि सभी विषय कहे गये हैं। ग्रन्थ में विष्णु पुराण के द्वारा पठित १८ पुराणों के नाम उत्पत्ति क्रम से दिये गये हैं। कूर्म पुराण के प्रथम अध्याय में ब्रह्मवैवर्त कृष्णजन्म खण्ड १३१./११-२१ में, भागवत १२/७/२२-२४ में भी महापुराण गणना है। _इन पुराणों के नाम भेदों को, महा और उप जैसे विभाग में भी विकल्पता की स्थिति एवं विद्वानों की उलझन को देखते हुए ऐसा आवश्यक लगता है कि इस क्षेत्र में अनुसन्धान होना चाहिये। यहाँ पुराण की स्मृति के लिये नाम के आद्याक्षरों को लेकर अनुष्टुप् छन्द है। उत्तरार्ध के पाठभेद से यह देवी भागवत (१.३.२) में भी उपलब्ध होता है वहाँ अ-नाप-लिं-ग-कू-स्नानि पुराणानि पृथक्-पृथक्' उत्तरार्ध पाठ है। कूर्मपुराण में १. ब्राह्म २. पाद्म ३. वैष्णव ४. शैव ५. भागवत ६. भविष्य ७. नारदीय ८. मार्कण्डेय ९. आग्नेय १०. ब्रह्मवैवर्त ११. लिङ्ग १२. वराह १३. स्कन्द १४. वामन १५ कूर्म १६. मत्स्य १७. गरुड तथा १८वाँ वायुप्रोक्त ब्रह्माण्डपुराण गिनाया गया है। (पूर्व वि. १/१३-१५) इस अवस्था में 'भविष्यस्य षष्ठत्वं वायुपुराणस्य चाष्टादशत्वमुक्तम्, ब्रह्माण्ड पुराणं तु तत्र नोल्लिखितम्' का क्या अभिप्राय है ? संभवतः ओझाजी शैव और भागवत को एक समझते हैं, यदि ऐसा है तो भविष्य के क्रम में अन्तर पड़ेगा, किन्तु इसके साथ ही वायुपुराण भी सत्रहवाँ होगा तथा १८वाँ ब्रह्माण्ड होगा। मार्कण्डेय पुराण में लगभग यही क्रम है १. ब्राह्म २. पाद्म ३. वैष्णव, ४. शैव ५. भागवत ६. नारदीय ७. मार्कण्डेय ८. आग्नेय ९. भविष्यं १०. ब्रह्मवैवर्त ११. लिंग १२. वराह १३. स्कन्द १४. वामन १५. कूर्म १६. मत्स्य १७. गरुड तथा १८ ब्रह्माण्ड। यहाँ शैव और भागवत को पृथक् लिया है किन्तु छठे क्रम के भविष्य को ९वें पर ले लिया, आगे वायुपुराण को पूर्णतया छोड़ दिया है। मार्कण्डेय ने प्रायः क्रम संख्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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