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________________ पुराणनिर्माणाधिकरणम् साथ दी है अतः पद्य में गिने नाम को छोड़ना तथा न गिने नाम को बीच में बढ़ा देना सम्भव नहीं है। सुविधा के लिए मूलपाठ दिया जा रहा है अष्टादशपुराणानि यानि प्राह पितामहः॥ १३४/७ तेषां सप्तमं ज्ञेयं मार्कण्डेयं सुविश्रुतम्। .. भगवान् ब्रह्मा की निर्मित १८ पुराण हैं यह कहकर इसे ब्रह्मकर्तृक सातवाँ बताया है। अब क्रमशः नाम गणना है ब्राह्यं पाद्यं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा॥८॥ तथान्यन्नारदीयं च मार्कण्डेयं च सप्तम्। आग्नेयमष्टमं प्रोक्तं भविष्यं नवमं तथा॥९॥ दशमं ब्रह्मवैवर्त लैङ्ग मेकादशं स्मृतम्। वाराहं द्वादशं प्रोक्तं स्कन्दमत्र त्रयोदशम् ॥१०॥ चतुर्दशं वामनं च कौर्म पञ्चदशं तथा। ... मात्स्यं च गारुडं चैव ब्रह्माण्डं च ततः परम् ॥११॥ यहाँ भी वायु नहीं गिना गया है। वस्तुतः संख्या आदि की ये विसंवादिताएँ गम्भीर विचार की अपेक्षा रखती हैं। ओझाजी ने यह छोटा-सा प्रकरण पुराणों के व्यासपरवर्ती किन्तु व्यासमूलक ऐतिहासिक अवतरण को बताने के लिए ही लिखा है। इस पर अपेक्षित विस्तृत विचार पूर्व में कर चुके हैं तथा एक अन्य प्रकार अब देने जा रहे हैं, अतः यह उनका अभिमत मत है यह समझना चाहिये। भिन्न प्रकार से पुराणावतार - यहाँ भी क्रम और प्रकार तो ओझाजी वही दे रहे हैं जो अभी यह पूरा हुआ है। अन्तर इतना ही है कि प्रदत्तप्रकरण में व्यास-संहिता, उससे रोमहर्षण संहिता पुनः लोमहर्षण के छः शिष्यों में से तीन की संहिता जैसा क्रम रहा है, लोमहर्षण की संहिता के साथ मिलकर ये कुल चार हो जाती हैं, ये चार ही वर्तमान सभी पुराणों का मूल आधार हैं जो सभी उग्रश्रवा द्वारा सम्पादित हैं। यहाँ भी क्रम लोमहर्षण शिष्यों तक तो यही है किन्तु यहाँ तीन के स्थान पर छः संहितायें बतायी गयी हैं। भागवत का यहाँ का पाठ भी बड़ा अस्त-व्यस्त है श्री श्रीधर स्वामी ने अन्य पुराणों के साथ संवादिता के आधार पर यहाँ व्याख्या नहीं की विशेषतः विष्णु पुराण को भी दृष्टि में रखते जिस पर उनकी व्याख्या भी है, किन्तु उसका भी ध्यान नहीं रखा, इससे यहाँ सारा ही विषय उलट-पलट गया तथा इतिहास की वास्तविकता से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004100
Book TitlePuran Nirmanadhikaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Oza, Chailsinh Rathod
PublisherJay Narayan Vyas Vishwavidyalay
Publication Year2013
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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