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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
स्थिर किया जा सकता है। 184 इस पद्धति से चित्त विचार - शून्य हो जाता है।' विचार-शून्य अवस्था पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है ।
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मन और तनाव का सह-सम्बन्ध
क्योंकि रहा है।
-
मन कोई स्थाई तत्त्व नहीं है। वह चेतना या चित्त के आधार पर सक्रिय रहता है- "जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है । 186 जैनदर्शन में मन की दो अवस्थाएँ मानी गई हैं- द्रव्य मन व भाव-मन। इस सम्बन्ध में पूर्व में चर्चा करते हुए हमने बताया है कि भाव-मन चैतसिक मनोवृत्ति है, तो द्रव्य - मन दैहिक - संरचना है। इन दोनों के बीच जैनदर्शन क्रिया-प्रतिक्रियारूप सम्बन्ध मानता है । चित्तवृत्तियों का प्रभाव शरीर पर होता है और शारीरिक - संवेदनाओं का प्रभाव चित्त-वृत्तियों पर होता है। यही एक ऐसी स्थिति है जिसके आधार पर तनाव और मन में सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान में तनाव को एक दैहिक - संवेदना के रूप में भी माना गया है, किन्तु इसी समय वह एक चैतसिक - वृत्ति भी है। जैनदर्शन मन और शरीर के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया का सम्बन्ध मानता है। विचार (भाव) के स्तर पर जो कुछ होता है, उसका प्रभाव शरीर पर और शरीर के स्तर पर जो कुछ होता है, उसका प्रभाव विचार (मनोभावों) पर पड़ता है। बाह्य- संवेदनाएँ शरीर को प्रभावित करती हैं और शरीर मन को प्रभावित करता है । पुनः यह प्रभावित मन शारीरिक- प्रतिक्रियाओं को उत्पन्न करता है और ये शारीरिक प्रतिक्रियाएँ ही मनोवैज्ञानिक भाषा में तनाव को जन्म देती हैं, अतः मन और तनाव- दोनों में एक सह-सम्बन्ध रहा हुआ है। मन किस प्रकार व्यक्ति को तनावग्रस्त करता है,.. बताते हुए जैन आगमों में कहा गया है -
यह
“आसं च छंदं च विगिंच धीरे ! तुमं चेव सल्लामाहटटु ।-187
हे धीर पुरुष ! आशा - तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर दे, तू स्वयं ही इन कांटों को मन में रखकर दुःखी ( तनावग्रस्त ) हो
“अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे ।
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वही, पृ. 248
185 निरालंबन ध्यान की पद्धति के लिए देखें चित्त और मन, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 249
186 चित्त और मन, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 1
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आचारांगसूत्र - 1/2/4
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