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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
अचेतन मन में तनाव के कारणों को जन्म देती है। दमित इच्छाएँ और वासनाएँ इसी प्रमत्त-चित्त में निवास करती हैं। प्रमत्त चित्त को ही कर्म कहा गया है, क्योंकि यह कर्मबन्धन का हेतु है। 4. चौथा चित्त है- कषाय-अध्यवसाय, यह चित्त क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ, राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता - इन सबको उत्पन्न करता है। ये कषाय वृत्तियाँ भी तनाव का मूलभूत हेतु हैं। कषाय-चित्त में रहा हुआ राग चेतना को अशुद्ध बनाता है। जितना रांग होता हैं, उतना ही चित्त अशुद्ध या तनावयुक्त होता है।
तनावमुक्ति के लिए वैराग्य का रास्ता बताया गया है। भगवान महावीर ने कहा है -"खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा, अर्थात् जितनी कामनाएँ, आकांक्षाएँ और लालसाएँ चित्त में जागती हैं, वे क्षण भर के लिए सुख देती हैं। वे प्रवृत्तिकाल (भोगकाल) में सुख देती हैं, किन्तु, परिणामकाल में अधिक समय तक दुःख देती हैं। 187 तृष्णाजन्य दुःख तनाव का ही पर्यायवाची है। मनोवैज्ञानिक जिसे तनाव कहते हैं, जैन आगमों में उसे दुःख कहा गया है। बौद्ध-परम्परा उसे तृष्णाजन्य दुःख नामक आर्य-सत्य कहती है। चित्त की दो अवस्थाएँ कही जा सकती हैं। जब चित्त अस्थिर या चंचल अथवा तृष्णा, कषाय आदि से युक्त होता है, तो वह विक्षिप्त चित्त कहा जाता है और जब वह इनसे रहित होता है तो वह स्थिर, शांत हो जाता है तथा समाहित चित्त कहा जाता है। विक्षिप्त चित्त दुःख (तनाव) युक्त होता है और समाहित चित्त को कोई दुःख नहीं होता है।182 विक्षिप्त चित्त जब समाहित चित्त हो जाता है, तो तनाव समाप्त हो जाते हैं। समाहित चित्त होने पर भी समस्याएँ आ सकती हैं, किन्तु वह उसमें अनुकूल-प्रतिकूल का संवेदन न करके तनावमुक्त रह सकता है। तनावमुक्त अवस्था चित्तशुद्धि या चित्त स्थिरता से सम्भव है और इसके लिए उपाय बताते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं- "भाव-शुद्धि ही चित्त को निर्मल व राग-द्वेष से मुक्त बना सकती है। 183 निरालंबन ध्यान से मन को दीर्घकाल तक एकाग्र कर चित्त को
178 वही, पृ. 243 179 वही, पृ. 245
उत्तराध्ययनसूत्र - 14/3 181 चित्त और मन - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 245 182 वही, पृ. 248 183 चित्त और मन, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 244
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