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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति फलतः तनाव उत्पन्न नहीं होगा, इसलिए यदि तनाव को समाप्त करना है, तो चित्त की चंचलता समाप्त करनी होगी, तब ही तनाव का जन्म भी नहीं होगा और इस प्रकार चित्तवृत्ति और तनाव के सह-सम्बन्ध का दुष्चक्र टूट जाएगा। चित्त और तनाव : आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में - आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी चित्त को चंचल कहा है, किन्तु मन और चित्त को पृथक् करते हुए उनका यह मानना है कि चित्त का विक्षेप, मन का विक्षेप है। चित्त की चंचलता मन की चंचलता है। मन का स्वभाव ही चंचलता है। जहाँ चंचलता समाप्त हो जाती है, वहाँ मन मर जाता है, अर्थात् मन 'अमन हो जाता है, किन्तु चित्त की स्थिति भिन्न है, उसको स्थिर किया जा सकता है और जब चित्त स्थिर हो जाता है, तब ही मन अमन बन जाता है।14 आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार, चित्त के चार प्रकार हैं।75 - 1. मिथ्यात्व-अध्यवसाय, 2. अविरत-अध्यवसाय, 3. प्रमाद-अध्यवसाय, 4. कषाय-अध्यवसाय । ये चार प्रकार के चित्त (अध्यवसाय) सतत सक्रिय रहते हैं। 1. मिथ्यात्व-अध्यवसाय-रूपी चित्त से जो प्रकम्पन होते हैं, वे दृष्टिकोण को भ्रांत बनाते हैं और जब दृष्टिकोण सम्यक नहीं होता, तो गलत धारणाएँ बनती हैं। ये गलत धारणाएँ व्यक्ति को तनावमुक्ति की अपेक्षा तनावग्रस्तता की ओर ले जाती हैं। 2. अविरत-अध्यवसाय चित्त का दूसरा प्रकार है। इसको तृष्णा भी कहा जाता है। अविरति की भावना से तृष्णा उत्पन्न होती है। यह तृष्णा निरन्तर बनी रहती है। यह तृष्णा स्थूल चित्त में प्रकट होकर लोभ या लोभ-जनित प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करती है। इस प्रकार, अविरतभाव-रूप यह तृष्णा नियमतः तनाव-उत्पत्ति का ही एक हेतु है। 3. तीसरा चित्त है - प्रमाद-अध्यवसाय, यह मूर्छा उत्पन्न करता है।" इसके कारण आत्म-सजगता समाप्त हो जाती है। यह असजगता 174 चित्त और मन, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 240 175 वही, पृ.. 242 वही, पृ. 242 वही, पृ. 243 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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