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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
6. प्रमत्त-संयत-गुणस्थान -
इस गुणस्थान में व्यक्ति तनाव के हेतुओं से पूरी तरह निवृत्त होकर तनावमुक्ति के लिए दृढ़तापूर्वक प्रयास करता है। इस अवस्था में व्यक्ति में तनाव का स्तर प्रथम तीन गुणस्थानों की अपेक्षा बहुत कम होता है। उदाहरण के रूप में, क्रोध के अवसर पर ऐसा. साधकं बाह्यरूप से तो शान्त बना रहता है तथा अन्तर में उस पर नियंत्रण करता है, फिर भी क्रोधादि कषाय-वृत्तियाँ उसके अन्तर-मानस में तनाव तो उत्पन्न । करती ही हैं। 7. अप्रमत्त-संयत-गुणस्थान -
यह पूर्ण सजगता की स्थिति है। इसे हम तनावमुक्ति की अवस्था कह सकते हैं। इस गुणस्थान में कषाय की अव्यक्त सत्ता तो होती है, कषाय-वृत्तियाँ व्यक्ति को विचलित करने का प्रयास भी करती. रहती हैं, किन्तु उसके अन्तर्मन (आत्मा) की सजगता उसे तनावमुक्त बनाए रखती है। 8. निवृत्तिबादर (कषाय) गुणस्थान -
इस अवस्था में साधक अधिकांश रूप में वासनाओं से मुक्त रहता है और मात्र बीजरूप संज्वलन-माया और लोभ ही शेष रहते हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इस गुणस्थान में व्यक्ति तनावमुक्त रहता है। 9. अनिवृत्तिबादर (नोकषाय) गुणस्थान -
यह भी तनावमुक्त अवस्था ही है, किन्तु इस गुणस्थान में रही हुई आत्मा पुनः तनावपूर्ण स्थिति में भी आ सकती है, क्योंकि इस अवस्था में तनाव-उत्पत्ति के नोकषायरूपी कुछ कारण अभी शेष होते हैं, यद्यपि व्यक्ति के तनावमुक्त हो जाने से यह सम्भावना अत्यन्त कम ही होती है। 10. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान -
अनिवृत्तिबादर-गुणस्थान में नोकषाय होने से पुनः तनाव-उत्पत्ति की संभावना तो होती है, किन्तु सूक्ष्मसंपराय-गुणस्थान में कषायों के कारणभूत हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा- इन पूर्वोक्त छ:
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जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 465
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