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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
भावों एवं स्त्री-पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी कामवासना को भी साधक नष्ट कर देता है।
11. उपशांत - मोहनीय - गुणस्थान
साधक वासनाओं को दबाकर या उपशमित कर इस गुणस्थान में आते हैं, अतः कुछ समय के लिए तनावमुक्त रहते हैं, किन्तु दमित वासनाओं के पुनः प्रकट होने की संभावना के कारण वे पुनः पतित हो जाते हैं।
12. क्षीणमोह - गुणस्थान
इस अवस्था में तनाव का कोई भी कारण, अर्थात् वासना शेष नहीं रहती । उसकी समस्त वासनाएँ, समस्त आकांक्षाएँ क्षीण हो चुकी होती हैं। ऐसा साधक राग-द्वेष से भी पूर्णतः मुक्त हो जाता है, अतः ऐसा व्यक्ति तनावमुक्त हो जाता है और पुनः तनाव की स्थिति में नहीं जाता है।
13. सयोगीकेवली - गुणस्थान
यह अवस्था भी पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था ही कही जाती है। इस अवस्था में साधक के चार अघातीकर्म शेष रहते हैं, परिणामस्वरूप उसका देह के साथ सम्बन्ध जुड़े होने के कारण उसकी वाचिक और मानसिक क्रियाएँ चलती रहती हैं और उनके कारण कर्म का इर्यापथिक-बंध तो होता है किन्तु वह उसे प्रभावित नहीं करता है ।
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14. अयोगकेवली गुणस्थान
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सयोगकेवली गुणस्थान में आत्मा देहातीत होकर आध्यात्मिक . पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, अर्थात् यह अवस्था पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था है।
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संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि इन चौदह गुणस्थानों में पहले तीन गुणस्थानों में व्यक्ति नियमतः कषाय के उदय के कारण तनावग्रस्त ही रहता है, जबकि चौथे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक किसी-न-किसी रूप में कषाय की सत्ता बनी रहती है और इसलिए इन अवस्थाओं में तनाव तो रहता है, किन्तु आत्मा आगे बढ़ते हुए तनाव से मुक्त होने के लिए सतत प्रयत्नशील होती है। अंतिम चार
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जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 470
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