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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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वह अपने उपयोग का प्रयोग ज्ञाता - द्रष्टाभाव को छोड़कर . कर्त्ता - भोक्ताभाव में करता है, तो वह विभाव - दशा को प्राप्त हो जाता है और ऐसी स्थिति में उसकी दशा तनावयुक्त दशा होगी, क्योंकि "अज्ञानी आत्मा ही कर्मों का कर्त्ता होता है। * 163 "आत्मा जंब विभाव - दशा में होती है, तो कर्मों का संचय करती है, वे कर्म ही विपाक -दशा में बहुत दुःखदायी (तनाव उत्पन्न करने वाले) होते हैं । " आत्मा का ज्ञाता-द्रष्टाभाव में नहीं होना - यही तनाव का हेतु है, किन्तु यदि वह ज्ञाता - द्रष्टाभाव में रहता है, तो वह तनावमुक्त है। इसी प्रकार, योग - आत्मा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का कारण है । यह प्रवृत्ति सद् और असद्- दोनों रूप में हो सकती है। यदि असद् - प्रवृत्ति है, तो वह निश्चय ही तनावग्रस्त होगा । सद्-प्रवृत्ति में इच्छा और आकांक्षा रह सकती है, वहाँ चाहे तीव्र तनाव न हो, किन्तु वह तनावमुक्त अवस्था भी नहीं मानी जा सकती। जब तक मन, वचन और काया की प्रवृत्ति है, तब तक शुभाशुभ भाव होते हैं और जब तक शुभाशुभ भाव हैं, तब तक इच्छाएँ और आकांक्षाएँ भी हो सकती हैं और उस स्थिति में व्यक्ति तनाव से युक्त भी हो सकता है। इससे भिन्न, जब योग में भी मात्र ज्ञाता - द्रष्टाभाव की स्थिति होती है, तब इच्छा के अभाव के कारण वह तनावमुक्त रह सकता है। तनावयुक्त अवस्था ही कषाय आत्मा की अवस्था है, क्योंकि तनाव का प्रमुख हेतु ही कषाय है।
इस प्रकार, आत्मा के आठ प्रकारों में द्रव्य - आत्मा विशुद्ध रूप होने से तनावरहित होती है । यद्यपि यह बात केवल निर्वाण प्राप्त आत्मा के सम्बन्ध में ही समझना चाहिए ।
जो द्रव्य आत्माएँ योग और कषाय से युक्त हैं, वे तो तनाव की स्थिति में होती ही हैं, क्योंकि उपयोग को ही आत्मा का लक्षण माना गया है, किन्तु यह उपयोग अपने शुद्ध स्वभाव में है, तो निर्विकल्पता होने के कारण तनावमुक्ति की अवस्था होती है। इस प्रकार, मात्र शुद्ध द्रव्य - आत्मा निश्चित ही विकारमुक्त होने से तनावमुक्त मानी गई है। शेष छः प्रकार की आत्माएँ तनावयुक्त भी हो सकती हैं और तनावमुक्त भी हो सकती हैं, किन्तु जहाँ तक कषाय आत्मा का प्रश्न है, वह नियमतः तनावयुक्त ही होती है ।
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समयसार - 12, अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि ।
उत्तराध्ययनसूत्र - 32/46
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