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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
संकल्प-विकल्प मन में उत्पन्न होते हैं, अतः मन को तनाव की जन्मभूमि कहा जा सकता है। चित्त उसकी संवेदना और अभिव्यक्ति-रूप है। द्रव्य-मन मन है और भावमन चित्त है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार तनाव एक मनोदैहिक-अवस्था है। जैनदर्शन के अनुसार, यह द्रव्यमन का भावमन पर होने वाला एक प्रभाव है। मन तनाव को जन्म देता है, चित्त उसका अनुभव करता है और अनुभव के आधार पर वह उद्वेलित भी होता है, जबकि आत्मस्वरूपतः उनका ज्ञाता या द्रष्टा होता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो आत्मा तनावों को देखता है, चित्त उन्हें देखकर उद्वेलित होता है और मन नए-नए विकल्पों को जन्म देकर हमारी चेतना को तनावों से युक्त बनाता है। यह तनाव से युक्त चेतना ही चित्त है। इस प्रकार, आत्मा, चित्त और मन भिन्न-भिन्न होकर भी अभिन्न हैं, क्योंकि जैनदर्शन की अनेकांत की दृष्टि कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानती है। जैनदर्शन में आत्मा की अवस्थाएँ और उनका तनाव से सहसम्बन्ध -
भगवतीसूत्र में आत्मा के आठ प्रकारों का वर्णन है। 162 इसमें ज्ञान-आत्मा, दर्शन-आत्मा, चारित्र-आत्मा, वीर्य-आत्मा, उपयोग-आत्मा और द्रव्यआत्मा का जो स्वरूप दिया है, उसे हम तनावमुक्ति की अवस्था कह सकते हैं, क्योंकि इन अवस्थाओं में आत्मा विभाव से युक्त नहीं होती है, अतः यह अवस्था निर्विकल्पता की होने के कारण तनावमुक्ति की अवस्था है। इसके विपरीत, कषाय-आत्मा तनाव की अवस्था है। जब मन, वचन और काया की प्रवृत्ति बाह्य-तत्त्वों से जुड़ती है, तो योगात्मा की अवस्था भी तनाव की ही अवस्था है, किन्तु जब योग (मन, वचन व काय) की प्रवृत्ति अन्तरात्मा से जुड़ती है, तो वह तनावमुक्ति की अवस्था होती है। यद्यपि यदि आत्मा विभावदशा को प्राप्त होती है, तो मिथ्या-ज्ञान, मिथ्या-दर्शन, मिथ्या-चारित्र से युक्त होने पर उसे तनावग्रस्त मान सकते हैं। आत्म-पुरुषार्थ या क्रियात्मक-शक्ति का मिथ्यात्व की दिशा में क्रियाशील होने पर उसे हम तनावयुक्त मान सकते हैं। तनाव आत्मा की पर्याय-दशा है, इसलिए द्रव्य-आत्मा अपने तात्त्विक स्वरूप में पर्याय से अप्रभावित होने की दशा में तनावमुक्त माना जा सकता है, किन्तु जहाँ तक उपयोग-आत्मा का प्रश्न है, यदि
162 भगवतीसूत्र- 6/33-34, भगवई, खण्ड-2, पृ.-246-247
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