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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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तनाव में डुबो देते हैं। वर्तमान में कर रहे कार्य को हम ठीक से नहीं कर पाते, क्योंकि हमारी आंतरिक शक्ति कम हो जाती है। कल्पना किए गए कार्य को करने में उतना भार नहीं होता, जितना कि हमारे मस्तिष्क में उस कल्पना का भार होता है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपनी कृति 'चेतना का ऊर्ध्वारोहण' में लिखा है- जितना भार कल्पना और स्मृति का होता है, उतना वास्तविकता का नहीं होता।152
लोग कहते हैं- यह जंगल बड़ा भयानक है। यहाँ शेर, चीते दिन में भी दहाड़ते हैं, कई जंगली जानवर हैं, इंसान की गन्ध मिलते ही उसे ढूंढकर खा ही जाते हैं। यह कल्पना में काफी भयावह है, किन्तु जब वन में से गुजरते हैं, वास्तव में उस समय इतना भय नहीं होता, जितना कि हमारी कल्पना में होता है, हमारी स्मृति में होता है। स्मृति
और कल्पना- ये हमारे अन्तर्जगत की घटनाएँ हैं और परिस्थिति का सामना बाहरी जगत की घटनाएँ हैं। बाहरी जगत की घटनाएँ हमारे मानस पर उतना प्रभाव नहीं डालतीं, जितना प्रभाव हमारी कल्पना, हमारी स्मृति का हमारे मन पर और हमारी कार्य क्षमता पर पड़ता है। न भूतकाल हमारा है, न भविष्यकाल। अगर कुछ है, तो वह है- वर्तमान। वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति कभी भी तनाव का या भार का अनुभव नहीं करेगा। अगर हम अतीत और भविष्य से कटकर, अलग होकर, उसके बारे में स्मृति या कल्पना से दूर रहकर वर्तमान में जीना सीख लें, तो तनावमुक्ति की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। आचार्य शंकर ने जीवन-मुक्ति की परिभाषा लिखी है, उसमें यही बताया है -
अतीताननुसन्धानं भविष्यदविचारणम्। - औदासिन्यमपि प्राप्ते, जीवन मुक्तस्य लक्षणम्।।
अर्थात, यह जीवन- मुक्ति क्या है ? जहाँ अतीत का अनुसन्धान नहीं है और भविष्य की विचारणा नहीं है। भविष्य की कल्पनाएँ और योजनाएँ नहीं है, वह है जीवन-मुक्ति।
इसी प्रकार, हम यह भी कह सकते हैं कि तनाव-मुक्ति ही जीवन-मुक्ति है। अगर हम भविष्य की कल्पना नहीं करें, अतीत की स्मृति के अनुसन्धान को छोड़ दें, तो हमें मुक्ति का अनुभव होगा और
152 व्ही, पृ.9
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