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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
. मन और शरीर वस्तुतः दो स्वतंत्र तत्त्व होने पर भी वे एक-दूसरे को प्रभावित करते ही हैं। गेस्ट्राल नामक मनोवैज्ञानिक ने यह माना था कि शारीरिक-परिवर्तन व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करते हैं और चेतना के द्वारा शारीरिक-परिवर्तन होते हैं, जैसे मादक-द्रव्यों के सेवन से चेतना प्रभावित होती है, तो दूसरी ओर मानसिक-विचारों का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। चिंताग्रस्त व्यक्ति दुर्बल होता जाता है। इस प्रकार, जैनदर्शन मन, वाणी और . शरीर- तीनों की पारस्परिक-प्रभावशीलता को स्वीकार करके चलता है और इसलिए वह यह मानता है कि आत्मशुद्धि के लिए मन शुद्धि और वचन शुद्धि । आवश्यक है।
__इस प्रकार, हम देखते हैं कि तनाव एक मानसिक स्थिति होकर भी अपनी अभिव्यक्ति तो वाणी और शरीर से ही प्राप्त करता है, अतः मन को संयमित करने के लिए शारीरिक गतिविधियों व वाणी को भी संयमित करना आवश्यक है। मन संयमित होगा, तो व्यक्ति तनावमुक्त होगा। अतीत और भविष्य की कल्पनाएँ और तनाव -
मनुष्य ज्यादा तनाव में होता है, जो भार उसे उठाना नहीं चाहिए, वह उससे ज्यादा भार ढोता है, अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना का भार । अतीत में कुछ ऐसी घटनाएँ घटी होती हैं कि हम वर्तमान में उसे बार-बार याद करके हमारे काम करने की शक्ति को कम कर देते हैं, जिससे हमारा कार्य नहीं हो पाता व एक और नया भार या तनाव पैदा हो जाता है। पूर्व स्मृति का भार तो कम हुआ नहीं था, कि एक और स्मृति बन गई। अतीत में क्या हुआ, कैसे हो गया, कोई हमसे दूर हो गया- इन सबका हम इतना बोझ उठाते हैं कि पूरी तरह तनाव से ग्रस्त हो जाते हैं।
इसी प्रकार, जटिल होता है- कल्पना का भारा हमारी बहुत-सी आकांक्षाएँ होती हैं और उनकी कल्पना में हम इतने डूब जाते हैं कि उसी में उलझ कर रह जाते हैं और भारी तनावग्रस्त हो जाते हैं। हमें भविष्य की इतनी चिंता रहती है कि हम वर्तमान को तनावयुक्त बना देते हैं। भूत और भविष्य के बोझ को उठाते-उठाते हम वर्तमान को भी
151 चेतना का ऊर्ध्वारोहण, आचार्य महाप्रज्ञजी, पृ. 9
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