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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 79 संयोगकाल में भी अतृप्त ही रहता है,145 अर्थात् तनावग्रस्त रहता है। वस्तुतः, आसक्त जीव को कुछ भी सुख नहीं होता। जैनाचार्यों ने मन और इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति को ही इच्छा कहा है147 और अनुकूल की चाह व प्रतिकूल के निराकरण की इच्छादोनों ही तनाव को जन्म देती हैं। अनकल की पूनः-पूनः प्राप्ति कैसे हो और प्रतिकल का वियोग कैसे हो, मूलतः चैतसिक तनाव का ही एक रूप हैं। गीता में भी कहा गया है- मन से इन्द्रियों की पूर्ति में बाधक बने तत्त्वों के प्रति क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध की स्थिति में विवेक समाप्त हो जाता है। विवके-शक्ति के समाप्त हो जाने पर व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है।148 अतः, तनाव की उत्पत्ति राग. के वशीभूत होती है, जो अपनी पूर्ति की प्रक्रिया में बाधक तत्त्वों के प्रति आक्रोश या द्वेष की वृत्ति को जन्म देता है। जैनदर्शन में राग व द्वेष को कर्मबीज कहा गया है और कर्म को बंधन का रूप माना गया है। चित्त में राग-द्वेष की वृत्तियों का जन्म होने पर चित्त विश्रृंखलित हो जाता है और उसके परिणामस्वरूप व्यक्ति तनावग्रस्त बना रहता है, अतः तनावों से मुक्ति के लिए मन को विकल्पों से ऊपर उठाना होगा। चूंकि मन में ऐसे उत्पन्न विकल्प वाणी और शरीर के माध्यम से ही अपनी अभिव्यक्ति पाते हैं, इसलिए जैनदर्शन में यह माना गया है कि मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवृत्तियाँ ही आश्रव का हेतु हैं और इस आश्रव से ही कर्मबंध होता है। जैसे-जैसे मन, वचन, काय के योग (संघष) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे-वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है। योगचक्र का पूर्णतः निरोध होने पर आत्मा में बंध (तनाव) का सर्वथा अभाव हो जाता है। __ जैनदर्शन यह मानता है कि मन और शरीर-ये दो अलग-अलग अवस्थाएँ हैं, फिर भी जैन कर्म-सिद्धांत में प्राचीनकाल से ही यह माना गया है कि जड़कर्म का प्रभाव हमारी चेतना पर और चेतना का प्रभाव जड़कों पर होता है। 148 145 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/41 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/71 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-2, पृ. 575 गीता - 2/62-63 49. रागो यदोसो वि य कम्म बीज - उत्तराध्ययनसूत्र -32/7 150 जहा.जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरूद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाधे। - बृह. भा. 3926 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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