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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति सूचक है। धर्म के नाम पर दो पीढ़ियों व दो वर्गों में भी तनाव के कारण बनते हैं। 78 आज यह देखा जाता है कि व्यक्ति धर्म के क्षेत्र में भी अपने अहं का पोषण एवं वर्चस्व की प्राप्ति चाहता है और अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा की कामना में अपनी सामर्थ्य से अधिक धन का व्यय करके भी तनावग्रस्त बन जाता है। धर्म के नाम पर होने वाले साम्प्रदायिक संघर्ष विरोधी धर्मो में एक-दूसरे के प्रति घृणा और विद्वेष की भावना उत्पन्न करते हैं और घृणा और विद्वेष की स्थिति ही व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाती है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि धर्म, जो मूलतः तनावमुक्ति का साधन था, वही तनाव की उत्पत्ति का कारण बन जाता है। तनाव के मनोवैज्ञानिक कारण -- वस्तुतः, तनाव एक मानसिक अवस्था है, जिसका प्रभाव हमारे शरीर और व्यवहार पर पड़ता है, फिर भी तनाव का मूल आधार तो मन ही है, क्योंकि तनाव का जन्म विकल्पों से होता है। विकल्प इच्छाओं, आकांक्षाओं और वासनाओं के कारण मन में उत्पन्न होते हैं। अनुकूल विकल्प अपनी पूर्ति की अपेक्षा रखते हैं और पूर्ति न होने के कारण तनाव को जन्म देते हैं । अवांछनीय विकल्प भी हमारी चेतना में यह भावना जाग्रत करते हैं कि उनकी पूर्ति का प्रयास किया जाए। यहाँ अवांछनीय से हमारा तात्पर्य अनुचित व अनैतिक से है। सभी विकल्प अपनी पूर्ति की अपेक्षा रखते हैं और पूर्ति न होने पर वे विकल्प विद्वेष, घृणा और आक्रोश को जन्म देते हैं, जो नियमतः तनाव के कारण बनते हैं। जब हमारी इन्द्रियों और चेतना का सम्पर्क बाह्य जगत से होता है, तो उसके परिणामस्वरूप कुछ अनुभूतियाँ सुखद व कुछ दुःखद लगती हैं। सुखद की पुनः प्राप्ति की इच्छा जागती है । तो दुःखद का कैसे वियोग हो, यह चिंता होती है। इस प्रकार व्यक्ति के चैतसिक स्तर पर उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ और आकांक्षाएँ अनुकूल होने पर पुनः पुनः प्राप्ति की अपेक्षा रखकर चेतना को तनावग्रस्त बनाती है, तो प्रतिकूल परिस्थिति से वियोग कैसे हो - इस चिंता के द्वारा वे चेतना को विक्षोभित करती रहती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भी लिखा है कि शब्द में मूर्च्छित जीव अनुकूल शब्द, गंध, रस, स्पर्श वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं प्रतिकूल के वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह उनके 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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