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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
बद्धमूल रूढ़ियों और स्वार्थ का पोषण होता है, तो निश्चित ही धार्मिक - क्रियाएँ तनाव की उत्पत्ति का कारण बनती हैं। उदाहरण के रूप में- लोग अपने उपास्य की छोटी-सी भागीदारी रखकर धनार्जन करना चाहते हैं । यह धनार्जन की वृत्ति या चाह स्वयं तनाव उत्पन्न करती है। यह सत्य है कि धर्म स्वतः तनाव की उत्पत्ति का कारण नहीं है, किन्तु साम्प्रदायिक दुराग्रह धर्म के नाम पर ही पनपता हैं, इससे समाज विघटित होता है, और यह विघटन न केवल उन दोनों पक्षों के मन में तनाव उत्पन्न करता है, अपितु सामान्य जन में भी पारस्परिक- अलगाव की परिस्थिति उत्पन्न करके उन्हें भी तनावग्रस्त बना देता है।
वर्तमान में धर्म का मतलब किसी दिव्य सत्ता, साधना-पद्धति या सिद्धान्त से लिया जाता है, जिस पर हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वास होता है। धर्म के इस अर्थ में लोग धर्म के नाम पर झगड़ा, कलह करते हैं, जो मात्र व्यक्ति या सम्राज में ही नहीं, अपितु धर्मयुद्ध के नाम पर पूरे विश्व में ही तनाव उत्पन्न करता है । धर्म न हिन्दू होता है, न बौद्ध, न जैन, न ईसाई, न इस्लाम, पर इन्हीं धार्मिक-सम्प्रदायों को धर्म मानकर, उनके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए होने वाला टकराव या संघर्ष विश्व में तनाव उत्पन्न करता है । ऐसे उन्मादी व्यक्ति स्वयं को धार्मिक बताते हैं, किन्तु आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैं- "क्षेत्रवाद, प्रान्तवाद, राष्ट्रवाद, भाषावाद और स्वयं की जाति के गर्व के आधार पर जो मनुष्य - मनुष्य में विरोध के बीज बोते हैं, मनुष्य की वास्तविक एकता को काल्पनिक - सिद्धान्तों के आधार पर छिन्न-भिन्न करते हैं, मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बनाते हैं, वस्तुतः, वे धार्मिक नहीं होते।"
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धर्म के नाम पर अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उपास्य को भी एक साधन मान लिया जाता है और उससे यह प्रार्थना की जाती है कि वह व्यक्ति के मनोरथों की सम्पूर्ति करे । प्रथमतः तो इच्छाओं, आकांक्षाओं की उपस्थिति ही तनाव की स्थिति का कारण बनती हैं, परन्तु इसके साथ जब उनकी पूर्ति नहीं होती है, तो व्यक्ति का आक्रोश उपास्य के प्रति भी जाग जाता है और वह उपास्य को भी भला-बुरा कहने से नहीं चूकता है। यह भी तनाव की स्थिति का ही
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समस्या को देखना सीखें
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आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 106
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