________________
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
तनाव के धार्मिक कारण -
सामान्यतः, धर्म समता एवं वीतरागभाव का सम्पोषक है, अतः उसे तनावमुक्ति का साधन माना जाता है, किन्तु धर्म के दो पक्ष होते हैं- एक सामान्य पक्ष और दूसरा उसका विकृत पक्ष होता है। जब धर्म सम्प्रदाय में आब्ध हो जाता है, तब कालक्रम में अनेक विसंगतियाँ उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं और धर्म को रूढ़िगत आचार-मर्यादाओं से जोड़ दिया जाता है। एक ओर वृद्ध पीढ़ी इन रूढ़िगत आचार-व्यवस्थाओं को बनाए रखना चाहती हैं, तो दूसरी और प्रगतिशील युवावर्ग उनके प्रति विद्रोह की भावना रखता है। यह सत्य है कि धार्मिक-रूढ़ियाँ और कर्मकाण्ड जिस परिस्थिति-विशेष में उत्पन्न होते हैं, उस समय सम्भवतः उनकी कोई सार्थकता होती है, किन्तु कालान्तर में उन रूढियों की सार्थकता भी समाप्त हो जाती है, फिर भी वृद्ध पीढ़ी उन्हें पकड़कर . रखना चाहती है और युवा पीढ़ी उन्हें ध्वंस करने में जुटी होती है। इस प्रकार वृद्ध और युवा-वर्ग में एक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है। यह संघर्ष दोनों के लिए तनाव का कारण बनता है, इसलिए जैनधर्म यह मानता है कि देश, काल और परिस्थितियों में उन रूढ़ियों के औचित्य का पुनः निर्धारण होना चाहिए और जो रूढ़ियाँ अपना मूल्य खो चुकी हैं, अर्थात् जिनकी अब कोई सार्थकता नहीं रही है, उन्हें छोड़ देना चाहिए। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि धर्म का मूल विनम्रता है और विनम्रता सदगति का मूल है।142 धर्म का सम्बन्ध विवेक से है, अतः समय-समय पर उन रूढ़ियों व परम्पराओं का मूल्यांकन होते रहना चाहिए। जैनदर्शन का सापेक्षिक-निर्धारणवाद का सिद्धांत यह बताता है कि धर्म के सम्बन्ध में आग्रह और एकांत-त्याग करके ही उसके सम्यक् स्वरूप का निर्धारण किया जाना चाहिए। समय के प्रवाह में अपना औचित्य खो चुकी रूढ़ियों से जकड़े रहना उचित नहीं है। इस प्रकार, जैनदर्शन यह बताता है कि एक समत्व व संतुलित दृष्टिकोण लेकर ही धर्म के क्षेत्र में कार्य करना चाहिए, ताकि धर्म के नाम पर तनाव की उत्पत्ति न हो और समाज विघटित न हो। धर्म का मूलभूत आधार आसक्ति या ममत्व का परित्याग है। धर्म-श्रद्धा हमें राग (आसक्ति) से मुक्त करती है,43 किन्तु दुर्भाग्य से वर्तमान युग में धर्म भी एक व्यवसाय बन गया है और उसके माध्यम से आज अपने स्वार्थों का पोषण किया जाता है। जब धर्म के नाम पर
142 धम्मस्स मूलं विणयं वंदति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए। – बृह. भा. 4441 143 सद्धा खमं णे विणइत्त रागं। - उत्तराध्ययन - 14/28
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org