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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
इस प्रकार, हम देखते हैं कि समाज में व्याप्त कुरीतियाँ तनाव का कारण बनती हैं। जिस समाज में स्त्री - पुरुष को समान अधिकार नहीं मिलते हैं, वहाँ स्त्रियाँ हीनभावना के कारण व पुरुष अपने अहंकारवश तनावग्रस्त बने रहते हैं । मात्र यही नहीं, कभी-कभी सामाजिक-प्रतिष्ठा के अनुकूल वस्त्र - आभूषण के अभाव के कारण भी विशेष रूप से स्त्रियाँ तनावग्रस्त बनी रहती हैं और उनकी तनावग्रस्तता व व्यवहार पुरुषों को भी प्रभावित करता है । इन छोटे-मोटे तनावों के कारण उनके दाम्पत्य-जीवन में भी बिखराव आ जाता है और जिसके कारण दोनों तनावग्रस्त रहते हैं । न केवल पति - पत्नी, अपितु परिवार के सदस्यों में भी सामंजस्य नहीं होता है और इस कारण भी सम्पूर्ण परिवार तनावग्रस्त रहता है ।
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कभी परिवार में वृद्धजन पुत्र-पुत्रवधू आदि को अपने अनुसार जीवन जीने को विवश करते हैं, इससे भी तनावग्रस्तता का जन्म होता है। समाज में समाज के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता के अनुसार कार्य और स्थान मिलना चाहिए, किन्तु व्यक्ति की अहंकार की वृत्ति और सामाजिक-प्रतिष्ठा की चाह आत्मसंतुष्टि न पाकर तनावों को जन्म देती है। इस प्रकार, सामाजिक-जीवन में अनेक ऐसे कारण पाए जाते हैं, जो व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। इस संदर्भ में भारतीय - चिन्तन के अन्तर्गत गीता में यह कहा गया है- "व्यक्ति को कर्म करने का अधिकार है, फल-प्राप्ति उसकी इच्छा के अनुसार हो, यह आवश्यक नहीं है। 141 जैनदर्शन में भी इस बात को यह कहकर समझाया गया है कि सम्यकदृष्टि जीव को अपने दायित्व व योग्यता के अनुरूप कार्य करते रहना चाहिए और फलासक्ति से दूर रहना चाहिए । कर्त्तव्यभावपूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करना एक ऐसा तत्त्व है, जिससे व्यक्ति समाज के तनाव को दूर कर सकता है। जैनग्रंथ स्थानांगसूत्र में दस प्रकार के सामाजिक-धर्मों का उल्लेख हुआ है, जैसे - ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि। ये धर्म व्यक्ति का समाज के प्रति जो दायित्व हैं, उसे बताते हैं और इस प्रकार सामाजिक जीवन में समरसता उत्पन्न की जा सकती है और तनाव से बचा जा सकता है।
गीता
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