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जैनधर्म दर्शन में तनाव
चाहिए।138 संघ (समाज) व्यवस्था में सदव्यवहार बड़ी चीज है। 139 जिस संघ (समाज) में सहयोग न हो, गलत प्रवृत्ति का निषेध न हो और सत्कार्य के लिए प्रेरणा न दी जाए, वह संघ संघ नहीं है। 40
समाज में धनी-गरीब, ऊँच-नीच, ज्ञानी और मूर्ख के जो वर्गभेद बनते हैं, वे व्यक्तियों के मन में हीनता एवं श्रेष्ठता के भाव उत्पन्न करते हैं और इन्हीं हीनता या श्रेष्ठता के भावों के कारण समाज में तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि सामाजिक-विषमता व्यक्ति के जीवन में तनाव को उत्पन्न करती है।
समाज में अनेक प्रकार की कुरीतियाँ भी प्रचलित होती हैं। उन कुरीतियों के कारण भी व्यक्ति का जीवन तनावग्रस्त बनता है। जैसे जिस समाज में यह प्रथा प्रचलित होती है कि जब तक किसी मृत व्यक्ति का मृत्युभोज नहीं किया जाता, तब तक उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती है, फलतः उसके परिजन अर्थाभाव होने पर भी इस प्रथा को निभाते हैं। इस प्रकार, मृत्युभोज की गलत परम्परा को जन्म तो मिलता ही है, किन्तु इसके परिणामस्वरूप जो विषन्न परिस्थिति के लोग हैं, वे भोज सामग्री और उसके लिए अर्थ व्यवस्था न कर पाने के कारण तनावग्रस्त बने रहते हैं। मृत्युभोज में कभी-कभी इतना व्यय होता है कि सम्पन्न व्यक्ति भी विपन्न परिस्थिति में चला जाता है और विपन्न व्यक्ति भी समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए उस हेतु व्यवस्था करने में और भी विपन्न हो जाता है।
जिस समाज में बाल-विवाह होते हैं, वहाँ परिजन अपनी दृष्टि से विवाह निश्चित कर देते हैं, किन्तु जब बालवय में परिणयसूत्र में बंधे वे पति-पत्नी युवावस्था में आते हैं, तो स्वभाव की भिन्नता के कारण तथा अन्य भिन्नताओं के कारण दोनों में तनाव उत्पन्न हो जाता है।
अनेक समाज में दहेज प्रथा भी प्रचलित है। यह दहेज-प्रथा भी ससुराल पक्ष के लोभी होने पर अनेक परिवारों व अनेक लड़कियों को तनावग्रस्त करती है।
असंगिहीयपरिज़णस्स संगिण्हणयाए अब्भूठेयत्वं भवति। - स्थानांग - 8
आवश्यकनियुक्ति भाष्य - 123 140 बह. भा. - 4464 (सु. त्रि.)
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