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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
प्रत्येक व्यक्ति मूलतः स्वहित की कामना का आकांक्षी होता है। जब कभी उसकी स्वहित की भावना को ठेस पहुंचती है, तो भी वह तनावग्रस्त बन जाता है, जैसे- अचानक आए हुए आर्थिक-संकट या दिवालियापन आदि की स्थिति में व्यक्ति तनावग्रस्त बन जाता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में उसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के धूमिल होने का भय होता है। इसके अतिरिक्त, समाज में व्याप्त वर्ग-संघर्ष एवं भेदभाव व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। जैनधर्म में धनी अथवा निर्धन का भेद, उच्च अथवा नीच का भेद, जाति एवं वर्ण का भेद मान्य नहीं हैं।
आचारांगसत्र में कहा गया है कि साधना-मार्ग (तनावमुक्ति का मार्ग) का उपदेश सभी के लिए समान है, जो उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वही उपदेश गरीब या निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए भी है, 134 किन्तु फिर भी वर्तमान में मान-कषाय के कारण यह भेदभाव की भावना प्रत्येक व्यक्ति में तनाव उत्पन्न कर रही है। वर्णभेद, रंगभेद, ऊँच-नीच के भाव आदि भी व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। सभी मनुष्यों की एक ही जाति है। 135 जन्म के आधार पर जाति का निश्चय नहीं किया जा सकता। जाति, धर्म के नाम पर उच्च जाति के व्यक्ति निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति से द्वेष एवं घृणा की भावना रखते हैं। जहां एक ओर श्रेष्ठ वर्ग अपने अहंकार के कारण और अहंकार के पोषण के लिए दोहरा जीवन जीते हैं, वहीं दूसरी ओर निम्न वर्ग वाले ईर्ष्या व अभावग्रस्त जीवन जीते हैं। इस तरह, दोनों प्रकार के व्यक्तियों में तनाव उत्पन्न होते हैं। जब समाज के सदस्यों में पारस्परिक सौहार्द
और सदभाव समाप्त हो जाता है तो उसके कारण भी व्यक्ति तनावग्रस्त होता है। जैनधर्म में एक स्वस्थ समाज व व्यक्ति के निर्माण के लिए निम्न सूत्र दिए गए हैं -
सूत्रकृतांग में कहा गया है- व्यक्ति को किसी के भी साथ वैर-विरोध नहीं करना चाहिए। 136 अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है।17 व्यक्ति को अपने अहं का पोषण नहीं करना चाहिए, जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा आश्रय देने हेतु सदा तत्पर रहना
134 आचारांग - 1/2/6/102 135 अभिधानराजेन्द्र, खण्ड-4, पृ 1441
न विरुज्झेज्ज केण वि। - सूत्रकृतांग - 1/11/12 137
बालजणो पगभई। - सूत्रकृतांग - 1/11/12
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