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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
वस्तु अपने- आप में सामान्य और विशेष-दोनों ही होती है। व्यक्ति सामाजिक होने पर भी व्यक्ति तो रहता ही है, समाज व्यक्ति-निरपेक्ष नहीं होता और व्यक्ति समाज-निरपेक्ष नहीं होता। यही कारण है कि सामाजिक परिस्थितियां एवं सामाजिक-विषमताएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है, साथ ही प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने अहं की संतुष्टि चाहता है। वह परिवार और समाज में रहता है, अतः परिवार एवं समाज के दूसरे सदस्यों से उसकी कुछ अपेक्षाएँ होती हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैंसमाज का आधार है। परस्परावलम्बन और परस्पर-सहयोग।11 व्यक्ति सामान्यतः एक प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने का आकांक्षी होता है। यदि समाज में उसकी आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती है और उसके अहं और प्रतिष्ठा को कोई चोट पहंचती है तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। समाज में उत्पन्न विषमताएँ और वर्ग-असंतुलन व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं और उसे तनावग्रस्त बनाते हैं। जब व्यक्ति की सामाजिक-प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचती है, तो,वह कभी-कभी आत्महत्या तक का निर्णय ले लेता है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में सम्मान के साथ जीना चाहता है। जैनदर्शन यह मानकर चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति में मान-कषाय होती है और जब तक व्यक्ति में चेतन व अचेतन रूप से मान-कषाय (Ego Problem) रही हुई हैं, तब तक वह तनावग्रस्त ही बना रहता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूजा-प्रतिष्ठा की कामना में पड़ा है, यश का भूखा है, मान-सम्मान के पीछे दौड़ता है, वह उनके लिए अनेक प्रकार के दंभ रचता हुआ, अत्यधिक पापकर्म करता है और अंत में कपटवृत्ति अपना लेता है। व्यक्ति के जीवन में कथनी और करनी में जितना दोहरापन आता है, उतना ही व्यक्ति तनावग्रस्त बना रहता है, क्योंकि वह यह अपेक्षा रखता है कि कहीं भी उसका यह दोहरापन उजागर न हो। जैनदर्शन में 'कहना कुछ और करना कुछ'- यही मृषावाद (असत्य भाषण) है।133 जब व्यक्ति असत्य कथन करता है, तो उसे भय होता है कि सत्य सामने आया तो उसकी मान-प्रतिष्ठा पर घात पहुंचेगा। इस प्रकार, सामाजिक-जीवन में व्यक्ति की प्रतिष्ठा और सम्मान की भावना ही उसे तनावग्रस्त बनाती है। दूसरे,
समस्या को देखना सीखें, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 11
132 दशवकालिकसूत्र - 5/2/37
133 नियुक्ति चूर्णि साहित्य की सूक्तियां, 3988, सूक्ति त्रिवेणी, पृ 225
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