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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 65 चाहिए, ताकि वे अभाव में जीवन न जीएं।12 यदि श्रमिकों को अपने श्रम का यथोचित प्रतिदान उपलब्ध होता है, तो वे संतोषपूर्वक अपना सामान्य जीवन बिताते हैं और उनके मन में धनी-वर्ग के प्रति विद्वेष की भावना भी जन्म नहीं लेती है। जैनदर्शन का यह प्रमुख सिद्धांत है कि व्यक्ति को पारस्परिक-हितों का ध्यान रखते हुए जीवन जीना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि -परस्परोपग्रहजीवानाम:, अर्थात्, जीवों को एक-दूसरे का सहयोग करते हुए जीवन जीना चाहिए। जैनदर्शन यह मानता है कि सम्यक जीवन जीने के लिए परस्पर सद्भाव की वृत्ति होना चाहिए। जहाँ पारस्परिक सहयोग की वृत्ति होती है, वहां शोषण की वृत्ति नहीं होती है और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक-जीवन में पारस्परिक-विद्वेष व घृणा भी जन्म नहीं लेती है। अतः, यदि समाज में तनावमुक्त जीवन जीना है, तो पारस्परिक सहयोग की वृत्ति से ही जीवन जीना होगा। समाज-व्यवस्था का आधार शोषण नहीं, सहयोग की भावना है, साथ ही, जैन-आचार्यों ने परिग्रह परिमाण व्रत व भोगोपभोग परिमाण व्रत की व्यवस्था देकर यह बताया है कि जब व्यक्ति में संग्रह-बुद्धि नहीं होती है और भोग-उपभोगों की आकांक्षाएं भी मर्यादित होती हैं, तो उसका जीवन शांत और सामंजस्यपूर्ण होता है। इसी हेतु भारतीय-दर्शन में 'सादा जीवन और उच्च विचार का सूत्र प्रस्तुत किया गया है। इस सूत्र के आधार पर अगर जीवन जीया जाए, तो पारस्परिक-ईर्ष्या व विद्वेष की भावना भी जन्म नहीं लेगी। यदि व्यक्ति अपनी आर्थिक-सामर्थ्य के अनुरूप. अपने व्यय. को सीमित रखेगा, तो भी पारस्परिक-ईर्ष्या की भावना जन्म नहीं लेगी और इस प्रकार व्यक्ति तनाव से मुक्त रह सकेगा। परिग्रह-परिमाण-व्रत से शोषण की प्रवृत्ति कम होगी और भोगोपभोग-परिमाण-व्रत से भोगवादी-जीवनदृष्टि पर अंकुश लगेगा और इस प्रकार व्यक्ति तनावों से मुक्त हो सकेगा। इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि जैन आचारदर्शन एक ओर तनावों की उत्पत्ति के मूल कारण की गवेषणा करता है, तो दूसरी ओर उनके निराकरण का उपाय भी सुझाता है। 112 पंचाषक प्रकरण, जिनभवन निर्माण 113 तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय-5 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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