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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
निर्धन-वर्ग अपनी दैहिक - आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पाता है। वह रोटी, कपड़ा और मकान की समस्याओं से जूझता रहता है। दूसरी ओर, पूँजीपति के भोगोपभोग के प्रचुर साधनों को देखकर श्रमिक वर्ग के मन में ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है। एक ओर अभावग्रस्त जीवन और दूसरी ओर ईर्ष्या की वृत्ति, इन दोनों के परिणामस्वरूप उसका जीवन तनावग्रस्त बन जाता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि तनावग्रस्त होने का एक कारण पूँजीपति वर्ग द्वारा गरीबों के शोषण की प्रवृत्ति भी है।
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एक ओर भौतिक सुख-सुविधा के आकर्षण व्यक्ति को लुभाते हैं, तो दूसरी ओर उन साधनों को क्रय करने में धन का अभाव उसकी चेतना में तनाव को जन्म देता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अमीरों के द्वारा श्रमिकों के शोषण की प्रवृत्ति भी तनाव को एक प्रमुख कारण है। शोषित वर्ग अभावग्रस्त होने के कारण सदैव तनावों से ग्रस्त बना रहता है। उन तनावों से छुटकारा पाने के लिए वह मादक द्रव्यों का सेवन करता है और इसके परिणामस्वरूप एक ओर उसकी पारिवारिक - अर्थव्यवस्था भी अव्यवस्थित हो जाती है, तो दूसरी ओर परिवार के सदस्यों में कलह प्रारम्भ हो जाता है और यह कलह पुनः उसे तनावग्रस्त बना देता है। इस प्रकार उसके जीवन में तनावों का एक दुष्चक्र प्रारम्भ हो जाता है। कभी यह भी होता है कि पूँजीपति के पास जो सुख-सुविधा व उपभोग के अतिरिक्त साधन होते हैं, उन्हें देखकर व्यक्ति अपनी आर्थिक क्षमता का विकास न करके अपव्यय करने लगता है। इस अपव्यय के परिणामस्वरूप वह धीरे-धीरे कर्ज के बोझ में डूबकर गरीब होता जाता है और उस कर्ज को चुकाने की चिन्ता में और अधिक तनावग्रस्त होता जाता है।
इस प्रकार, यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि भौतिक आकर्षण, शोषण, भोगवादी - जीवनदृष्टि व गरीबी - ये सभी व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि शोषण, गरीबी और भौतिकआकर्षणों से उत्पन्न ईर्ष्या - ये तीनों ही व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। अतः, जैनदर्शन में सर्वप्रथम यह प्रतिपादित किया गया है कि श्रमिकों को उनके श्रम का पूरा पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए, ताकि वे अपना जीवनयापन सम्यक् प्रकार से कर सकें । आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रंथ 'पंचाशकप्रकरण' में जिनभवन-निर्माण-विधि में यह बताया है कि श्रमिकों को उनके श्रम के प्रतिदान के रूप में पूरा पारिश्रमिक दिया जाना
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