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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
उसका चित्त रात-दिन, उन्हीं अनेक धंधों की उधेड़बुन में लगा रहता है। 10 अर्थ को तनाव का हेतु बताते हुए वे आगे लिखते हैं कि अनेक चित्त (अनेक इच्छाओं से युक्त) पुरुष अतिलोभी बनकर कितनी ही असम्भव इच्छाओं की पूर्ति चाहता है, इसके लिए शास्त्रकार छलनी का दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि छलनी को जल से भरना अशक्य है, अर्थात् छलनीरूपी महातृष्णा को धनरूपी जल से भरना असम्भव है। व्यक्ति अपने तृष्णा के खप्पर को भरने हेतु दूसरे प्राणियों का वध करता है, दूसरों को शारीरिक व मानसिक-संताप देता है। तृष्णाग्रस्त व्यक्ति न स्वयं शारीरिक व मानसिक-सुख पाता है, न दूसरों को शांति से रहने देता है। वह स्वयं तनावग्रस्त होकर दूसरों को भी तनावग्रस्त बनाता है। तृष्णायुक्त व्यक्ति द्विपद (दास-दासी, नौकर आदि), चतुष्पद (चार पैरों के पशु) आदि का संग्रह करता है। इतना ही नहीं, वह असीम लोभ से उन्मत्त होकर लोगों को मारता है, उन्हें अनेक प्रकार के दुःख देता है। तृष्णाकुल मनुष्य स्वयं व्याकुल व तनावयुक्त होता है और दूसरों को तनावग्रस्त बनाता है। उसकी धन-अर्जन की तृष्णा तनाव का कारण बनी रहती है। । आर्थिक विकास वैश्विक विकास के लिए आवश्यक है, किन्तु वह विकास तनाव उत्पन्न करने के लिए नहीं होना चाहिए। यह सत्य है कि अर्थ का अभाव तनाव दे सकता है, किन्तु ऐसे तनाव की तीव्रता अति अल्प होती है। आर्थिक विकास का लक्ष्य उत्तम है, किन्तु वह प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं व्यक्ति की मानसिक-शांति या तनावमुक्ति के लिए होना चाहिए। शोषण की प्रवृत्ति और तनाव – . . आधुनिक साम्यवादी अर्थतंत्र में समाज को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- एक, शोषक और दूसरा, शोषित। पूँजीपति वर्ग को शोषक और श्रमिक-वर्ग को शोषित माना जाता है। शोषक का सामान्य अर्थ श्रमिक को उसके श्रम से अर्जित लाभ का पूरा हिस्सा नहीं देना है। इसके परिणामस्वरूप श्रमिक-वर्ग धीरे-धीरे गरीब और शोषक-वर्ग धीरे-धीरे अमीर बनता जाता है और इस प्रकार समाज दो वर्गों में विभाजित हो जाता है, एक, अमीर और दूसरा, गरीब। गरीब व
110 टाचारांग, अध्ययन-3/2, सूत्र 118 का विवेचन, पृ. 93, मधुकर मुनि
टाचारांग, अध्ययन-3/2, सूत्र 118 का विवेचन, पृ. 94, मधुकर मुनि
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