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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति जितनी उसे अति आवश्यकता लगती है। अति आवश्यकताएँ भी उनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति को अर्थ- उपार्जन के लिए प्रेरित करती हैं, किन्तु जब वे आवश्यकताएँ इच्छाएँ बन जाती हैं, तो सभी इच्छाओं की पूर्ति असम्भव होने से वे तनाव के स्तर को बढ़ा देती हैं। यद्यपि जैविक एवं सामाजिक आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती . हैं, किन्तु जब उन आवश्यकताओं की जगह इच्छाएं ले लेती हैं, तो उनकी पूर्ति असम्भव हो जाती है, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार इच्छाएं तो आकाश के समान अनन्त हैं।107 अनन्त इच्छाओं की पूर्ति असम्भव . होने से ये अतृप्त इच्छाएं तनाव के स्तर को बढ़ा देती हैं। - व्यक्ति केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ का संचय नहीं करता है। वह अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं, वासनाओं, सुख-सुविधा तथा विलासिता के साधनों एवं सामाजिक-प्रतिष्ठा के लिए भी अर्थ-संचय करता है। वर्तमान युग में उपभोगवादी जीवन-दष्टि का विकास हो रहा है। आज व्यक्ति अपनी आवश्यक सुविधाओं से अतिरिक्त भी कुछ चाहता है। उसकी अर्थ के प्रति आसक्ति इतनी बढ़ गई है कि मनुष्य अपने-से ज्यादा अर्थ को प्रधानता देता है। वह धन का उपार्जन अपनी अनियंत्रित इच्छाओं की पूर्ति के लिए करता ही रहता है और जीवन में कभी शांति को प्राप्त नहीं कर पाता है। आज व्यक्ति में स्वार्थ इतना बढ़ चुका है कि वह न तो स्वयं शांति से जीता है, न दूसरों को शांति से जीने देता है। अर्थ तनाव का हेतु है, क्योंकि अर्थ- अर्जन का एक हेतु व्यक्ति की तृष्णा या इच्छा भी है। आचारांग में लिखा है- व्यक्ति तृष्णारूपी छलनी को जल से भरना चाहता है। तृष्णा की पूर्ति के लिए व्याकुल (तनावग्रस्त) मनुष्य दूसरों के वध के लिए, दूसरों के परिताप के लिए दूसरों को परिग्रहित करता है तथा जनपद के वध व परिग्रहण के लिए प्रवृत्ति करता है। मधुकर, मुनि इसी सूत्र का विवेचन करते हुए लिखते हैं- आगम में सुखाभिलाषी पुरुष को अनेक चित्त बताया है, क्योंकि वह लोभ से प्रेरित होकर कृषि, व्यापार, कारखाने आदि अनेक धंधे करता है, 107 उत्तराध्ययन सूत्र - 9/36 या 9/48 महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 18 टाचारांग, अध्ययन- 3/2/118 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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