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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति चलती हैं।" वासना का तत्त्व अपनी तीव्रता की सकारात्मक - अवस्था में रागरूप होता है, वही निषेधात्मक अवस्था में द्वेषरूप हो जाता है। राग-द्वेष सहजीवी हैं। यदि राग व्यापक होकर सर्वहित की भावना में बदल जाए, तो वह आवेगात्मक नहीं रह जाता है, वह चित्तवृत्ति के समत्व का आधार बन जाता है। इसी प्रकार, द्वेष भी अपनी पूर्णता में जब सभी के प्रति निर्ममत्व की स्थिति में होता है, तो वह भी हमारी चेतना को विक्षोभित नहीं करता है। वस्तुतः सर्वहिताय की वृत्ति और पूर्णतः निर्ममत्व की बुद्धि ऐसी है, जो तनाव को जन्म नहीं देती है। राग और द्वेष जब भी किसी विशेष व्यक्ति या वस्तु पर आधारित होते हैं, तो वे तनाव को जन्म देते हैं, क्योंकि उनसे हमारे चित्त का समत्व भंग होता है । हमारे दुःख का मूल कारण भी राग-द्वेष ही हैं, जो कषायरूप हैं। प्रशमरतिप्रकरण में सभी दुःखों का कारण राग-द्वेष बताया है और राग-द्वेष को ही कषाय कहा गया है। जो जीव राग-द्वेष के अधीन होते हैं, वे क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी कहे जाते हैं।" इसके विपरीत, यह भी सत्य है कि जब राग अधिक व्याप्त होकर सर्व के हित की भावना बन जाता है और द्वेष अपनी पूर्णता में निर्ममत्व की साधना बन जाता है, तो दोनों ही तनाव को समाप्त करने में सहायक होते हैं । सर्व | व्यापी राग व सर्वव्यापी द्वेष तनाव का कारण नहीं हैं। नियमसार में भी उल्लेखित है कि जिसे राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता हैं, उसे विकार भी उत्पन्न नहीं होता है। 2 रागद्वेष के अभाव में समता होती है और जहाँ समता है, वहाँ तनाव नहीं होता है। तनाव का मूल कारण राग व द्वेष की सहजीविता है । राग व द्वेष की सहजीविता से ही व्यक्ति में कषाय की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। कषाय व राग-द्वेष का सम्बन्ध बताते हुए समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं- मिथ्यात्व, अविरति कषाय और योग आस्रव के निमित्त हैं और कर्म - आस्रव से बंध होता है। बंध के उदय के निमित्त पुनः राग-द्वेष हैं और इस प्रकार संसार चक्र चलता रहता है। वस्तुतः, जहाँ आश्रव है, वहाँ बंध है और जहाँ बंधविपाक है, वहाँ तनाव है, क्योंकि आश्रव संसार - परिभ्रमण का कारण है और संसारचक्रं में तनावमुक्ति संभव नहीं है। तनाव के निमित्त कषाय हैं, 90 जैन बौद्ध, गीता के आचार-दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन 91 प्रशमरतिप्रकरण - 23 92 नियमसार, परमसमाध्याधिकार - 128 93 समयसार / आश्रव अधिकार 164, 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only 55 www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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