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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
स्वतन्त्रता को भंग कर उसे तनावग्रस्त बनाते हैं, अतः कषायमुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है, क्योंकि वही तनावमुक्ति है।
परवर्ती जैन- दार्शनिक ग्रन्थों में राग-द्वेष और कषाय का सह-सम्बन्ध
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जैन-दर्शन के अनुसार, वासना या भोगासक्ति से राग का जन्म होता है, फिर भोगासक्ति या भोगाकांक्षा की पूर्ति में जो बाधक तत्त्व होते हैं, उनके प्रति द्वेष का जन्म होता है। वस्तुतः, राग-द्वेष सहजीवी हैं। जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष भी अव्यक्त रूप से तो उपस्थित रहता ही है, इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि राग और द्वेष कर्म या संसार - परिभम्रण के बीज हैं। राग-द्वेष से ही कषायों की उत्पत्ति होती
है ।
परवर्तीकालीन जैनग्रंथ 'विशेषावश्यकभाष्य' (छठवीं शताब्दी) में राग-द्वेष का कषायों से क्या और कैसे सम्बन्ध हैं इसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। उसमें विभिन्न नयों के आधार पर यह बताया गया है कि संग्रहनय की दृष्टि से क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और. लोभ रागरूप हैं। इसी बात को प्रकारान्तर से स्थानांग - सूत्र में भी बताया गया है। उसमें कहा गया है कि राग से माया और लोभ व द्वेष सेक्रोध और मान का जन्म होता है, क्योंकि क्रोध और मान में दूसरे के अहित या नीचा दिखाने की भावना होती है, अतः ये दोनों द्वेषजन्य हैं, जबकि माया और लोभ - दोनों रागरूप हैं, क्योंकि इनमें अपने स्वार्थ की साधना ही मुख्य लक्ष्य रहता है, किन्तु व्यवहार - नय की अपेक्षा से क्रोध, मान व माया - तीनों को द्वेषरूप माना गया है, क्योंकि माया भी दूसरों के अहित का विचार ही है। केवल अकेला लोभ रागात्मक है, क्योंकि उसमें ममत्व भाव है । अध्यात्मसार के ममत्व - त्याग अधिकार में भी ममता का कारण लोभ बताया है। इसके विपरीत, ऋजुसूत्रनय का कथन यह है कि केवल क्रोध ही द्वेषरूप होता है, शेष मान, माया और लोभ एकान्तः न तो रागरूप कहे जा सकते हैं, न द्वेषरूप कहे जा सकते हैं। रागात्मकता से प्रेरित होने पर वे रागरूप होते हैं और द्वेषात्मकता से प्रेरित होने पर वे द्वेषयुक्त हो जाते हैं। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में, चारों कषायें राग एवं द्वेष - दोनों पक्षों को अपने में समाहित करके
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उत्तराध्ययन सूत्र 32/17
अध्यात्मसार 18 अधिकार, ममत्व त्यागः गाथा - 217
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