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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
परावलम्बन से मुक्त होता है, उसकी अन्तःशुद्धि होती जाती है। जैसे चिड़ियां सोने के पिंजरे में बंद हो, फिर भी खुश नहीं रहती, वह भी आजाद होकर स्वावलम्बी बनना चाहती है, वैसे ही आत्मा भी मुक्त होना चाहती है। कभी-कभी व्यक्ति तनावमुक्ति के लिए, स्वतन्त्र होने के लिए और स्वावलम्बी बनने के लिए प्रयास तो करता है, किन्तु फिर भी वह उसे जीवन में उतारने में स्वयं को असमर्थ पाता है। इसका कारण उसकी मानसिक कमजोरी ही है, क्योंकि एक बार जीवन किसी के आश्रित हो जाए, अर्थात् परावलम्बी बन जाए, तो उससे छूटना अत्यधिक कठिन होता है। पं. फूलचन्दजी शास्त्री ने इसका कारण जीवन की भीतरी कमजोरी माना है और कषाय-चतुष्क को इस दशा के बनाए रखने में निमित्त बताया है। तनावमुक्ति के लिए व्यक्ति का स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी होना आवश्यक है और इसके लिए उसे मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ अन्तःशुद्धि भी करनी होगी, अन्तःशुद्धि में बाधक तत्त्व कषाय-चतुष्क का उदय होने पर उनका समभाव से सामना कर कर्मों की निर्जरा करनी होगी, तभी मोक्ष-प्राप्ति सम्भव है। कषायमुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है, तनाव से भी और संसार से भी। तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में भी कषाय को ही संसार-भ्रमण का मुख्य कारण बताया है और व्यक्ति के दुःखों एवं तनावों की उत्पत्ति का हेतु भी कहा है। साथ ही मुक्ति के लिए कषाय-मुक्ति को ही एकमात्र मार्ग बताया है।
जैनदर्शन के अनुसार, स्वाभाविक आचरण को ही सदाचार कहा गया है। इसी सदाचार का दूसरा नाम सच्चारित्र भी है। जो कर्म इस सच्चारित्र में बाधक होते हैं, उन्हें ही आगम में चारित्र-मोहनीय कर्म कहा गया है।" स्वावलम्बन, स्वतन्त्रता, विवेकादि गुण तनावमुक्ति में साधक हैं और चारित्रमोहनीय तनावमुक्ति में भी बाधक हैं तथा मानसिक-शांतिः को भंग करने वाला है। "चारित्रमोहनीय के कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय भेद कर्मबंध के हेतु हैं और ये ही तनाव-उत्पत्ति के कारण भी है। "हास्यादि नोकषाय-मोहनीय एवं कषायमोहनीय- चतुष्क दोनों ही जब उदय में आते हैं, तो व्यक्ति की
सर्वार्थसिद्धि, पृ. 302 सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 8, पृ. 302 तत्वार्थसूत्र, अध्याय 8/9-10
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