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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
तीव्रता ही कर्मों की स्थिति में वृद्धि करती है तथा कषाय की मंदता से कर्मों की स्थिति में कमी आती है। इस तरह, तनाव एवं कषायं का भी सहसम्बन्ध मानना चाहिए। जब व्यक्ति में कषाय प्रवृत्ति अधिक होती है, तब उसकी विवेक बुद्धि नष्ट होकर व्यक्ति को जीवन - पर्यन्त तनावग्रस्त बना देती है, जिसे हम अनन्तानुबंधी - कषाय कहते हैं। चारों कषायों में से एक भी कषाय की तीव्रता अगर व्यक्ति में है, तो शेष कषायों की प्रवृत्तियों में भी वृद्धि हो जाती है, जो उसके सोचने-समझने की क्षमता को समाप्त कर देती है, उसके मानसिक संतुलन को बिगाड़ देती है । कषाय व्यक्ति की सुख-शांति की जिन्दगी में तूफान की तरह आते हैं और उसे तनावग्रस्ततारूपी गड्ढे में गिरा देते हैं। कषाय के सम्बन्ध से ही जीव कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है" और उसी के सम्बन्ध से व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में तनाव उत्पन्न करता है। कर्म बंध की स्थिति व अनुभाग (तीव्रता) कषाय के आश्रित हैं, क्योंकि कषाय की तीव्रता - मन्दता पर ही स्थिति-बंध और अनुभाग बंध की अल्पाधिकता अवलम्बित है । कषाय की ही तीव्रता व मन्दता के आधार पर तनाव भी घटता-बढ़ता रहता है, क्योंकि जितना तीव्र, क्रोध होता है, उतना ही मानसिक संतुलन - बिगड़ता जाता है। लोभी प्रतिक्षण कुछ प्राप्ति की इच्छा रखता है । इच्छा से तनाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है, उसकी पूर्ति असम्भव है। उसकी जितनी पूर्ति होती है, लालसा उतनी ही बढ़ती जाती है। वह अपनी लालसाओं की पूर्ति एवं मान-सम्मान के लिए सदैव षड़यंत्र रचता रहता है और इस प्रकार व्यक्ति एक क्षण के लिए भी मानसिक-शांति का अनुभव नहीं कर
सकता ।
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तत्त्वार्थसूत्र में कर्मबंध के हेतुओं में कषाय का भी समावेश किया गया है, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि कषाय का सम्बन्ध आठ कर्मो में से किससे है? इसका उत्तर भी हमें तत्त्वार्थसूत्र के ही बंध-तत्त्व नामक आठवें अध्याय के दसवें सूत्र में मिलता है -
दर्शनचारित्र मोहनीय कषायनो कषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्धि षोडशनव भेदाः सम्यक्त्व मिथ्यात्वतदुभे यानि कषायनो कषायावनन्तानुबन्धय - प्रत्याख्यान
प्रत्याख्यानावरणं
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अकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलनादत्ते, तत्त्वार्थ सूत्र
तत्वार्थ सूत्र टीका
पं. सुखलाल संघवी पृ. 115
तत्वार्थ
सूत्र अध्याय-8 / 10
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- अध्याय 8/2
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