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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति कर देती है। व्यक्ति के सदगुण ही उसके जीवन में शांति स्थापित करते हैं और इनके नष्ट होने पर व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। (ग) तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में कषायों का स्वरूप और उनका तनावों से सह-सम्बन्ध - . जैन-दर्शन के अनुसार, जो बंध के हेतु हैं, वे तनाव के कारण भी है। दूसरे शब्दों में कहें, तो मोक्ष प्राप्ति में बाधक तत्त्व ही तनावउत्त्पत्ति के हेतु हैं और मोक्ष-प्राप्ति के साधन ही तनावमुक्ति के उपाय मुख्य रूप से शास्त्रों में कषाय और योग- इन दो बंधहेतुओं का कथन है। तत्त्वार्थसूत्र व समवायांग'5 में बंध के पाँच हेतु बताए गए हैं 1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5. योग। इन पाँच में से भी कषाय व योग -इन दो को ही बन्ध का प्रमुख कारण माना गया है। तनाव-उत्पत्ति का मूल कारण राग-द्वेष हैं और आत्मा कलुषित भी इन्हीं से होती है। राग-द्वेष होने पर ही जीव में कषाय उत्पन्न होते हैं। तत्त्वार्थसत्र की हिन्दी व्याख्या में केवलमनि लिखते हैं -"आत्मा के कलुषित परिणाम कषाय हैं।.76 कषाय के चार प्रकार कहे गये हैं - 1. क्रोध, 2 मान, 3 माया और 4 लोभ । ये चारों ही तनाव उत्पन्न करते हैं। कषाय की तीव्रता तनाव के स्तर को बढ़ाती है और कषाय की मन्दता तनाव के स्तर को कम करती है। कषायों के निमित्त से कर्मों का बंध निरन्तर होता रहता है। यह बंध चार प्रकार का है- प्रकृति-बंध, प्रदेश-बंध, अनुभाग-बंध और स्थिति बंध।" कर्मों के स्वभाव को प्रकृति बंध कहते हैं। कर्म-पुद्गलों के आत्मा के साथ सम्बद्ध रहने की काल-मर्यादा को स्थिति-बंध कहते हैं। कर्मफल की मंदता या तीव्रता को अनुभाग-बंध व कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ कितनी मात्रा में चिपकते हैं, उसे प्रदेश बन्ध कहते हैं। कोई भी कर्म उपर्युक्त चार प्रकार से बंधता है, किन्तु कर्मों का स्थिति, बंध एवं फल में हानि-वृद्धि तो कषाय की प्रवृत्ति से होती है। कषाय की 73 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/7 मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद कषाययोगा बन्धहेतवः ।, -तत्वार्थसूत्र, अध्याय 8, सूत्र-1 समवायांग, समवाय - 5 . तत्त्वार्थसूत्र, केवलमुनिजी, अध्याय 8, पृ. 352 प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः । - तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय - 8/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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