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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
जहाँ आसक्ति है, वहाँ रोग है, जहाँ राग है, वहाँ द्वेष है, जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ कर्म है, जहाँ कर्म है वहाँ बन्धन है और बन्धन स्वयं दुःख है 185
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यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र में तनाव शब्द नहीं मिलता है, किन्तु उसके स्थान पर दुःख शब्द का प्रयोग हुआ है एवं उस दुःख के स्वरूप, कारण व निराकरण के उपायों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है।" दुःख तनाव का पर्यायवाची है। 7 दुःख का मूल कारण राग-द्वेष या ममत्व का आरोपण है। मुक्ति के लिए राग का त्याग अनिवार्य है। राग शुभ व अशुभ- दोनों हो सकते हैं, इस बात की पुष्टि उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन से होती है। उसमें भगवान् महावीर स्वामी ने प्रशस्त (शुभ) राग को भी मुक्ति में बाधक माना है। उत्तराध्ययन में तनावमुक्ति के लिए राग-द्वेष का त्याग कहा गया है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिसका मोह (राग) समाप्त हो जाता है, उसका दुःखं समाप्त हो जाता है। " मोह के विसर्जन तथा राग-द्वेष के उन्मूलन से एकान्त सुखरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है।" राग-द्वेष की समाप्ति होने पर ही तनावमुक्ति होती है। जैनदर्शन में राग-द्वेष से जनित क्रोध, मान, माया, लोभ-रूप मलिन चित्तवृत्तियों को कषाय कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं उसकी टीकाओं में कषायों के स्वरूप की स्पष्ट व्याख्या उपलब्ध होती है। इसमें क्रोधादि कषायों से विमुक्ति की चर्चा अनेक स्थलों पर की गई है।" कषाय क्या है ? वह कैसे तनाव उत्पन्न करता है, इसका विस्तार से विवेचन तो आगे के अध्याय में किया जाएगा। यहाँ इतना बताना अनिवार्य है कि उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय के निम्न चार भेद प्रतिपादित किये गये हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । 2 ये चार कषाय प्रत्येक व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से होते हैं, इन पर विजय प्राप्त करने वाला ही तनावरूपी पिंजरे को तोड़ पाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय को अग्नि की उपमा दी है, जो आत्मा के सद्गुणों को जलाकर नष्ट
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उत्तराध्ययनसूत्र दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे उसका महत्त्व पृ. 242
उत्तराध्ययनसूत्र - 19/16
सुरेन्द्र वर्मा, समता सौरभ, जुलाई - सितम्बर 1996, पृ. 36
उत्तराध्ययनसूत्र 10/28
उत्तराध्ययनसूत्र
32/8
उत्तराध्ययनसूत्र 32/2
उत्तराध्ययन सूत्र
1/9, 2/26, 4/12
उत्तराध्ययनसूत्र 4 / 12, 29/88 से 71
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