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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
आसक्त बने हुए अज्ञानी जीव, असंयमी जीवन के इच्छुक होते हैं । व्यक्ति विषय-भोगों के लिए अत्यन्त रागभाव रखता हुआ शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को प्राप्त होता है तथा तनावयुक्त जीवन जीता है। 2
जब व्यक्ति की दृष्टि भौतिकता की ओर होती है, तब इच्छाजन्य तनावों से मुक्त होने के लिए भी वह बाह्य-पदार्थों को ही खोजता है । इस प्रकार व्यक्ति अनुकूल पर राग और प्रतिकूल पर द्वेष करता हुआ तनावयुक्त चित्तवृत्तियों का पोषण करता रहता है। मान का पोषण एवं लोभ की पूर्ति में बाधक तत्वों को जानकर उनके प्रति क्रोध एवं मायाचार करता है। इस प्रकार, राग-द्वेष तनाव की उत्पत्ति के बीज हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि काषायिक - चित्तवृत्तियाँ व्यक्ति को तनावयुक्त बना देती हैं। तनावमुक्ति का उपाय बताते हुए आचारांग में कहा गया है कि बुद्धिमान पुरुष राग-द्वेष को आत्मा से पृथक् कर, विषयों को कषाय-उत्पत्ति का हेतु जानकर उन्हें छोड़ दे और संयम में पुरुषार्थ करे, जिससे वह तनावमुक्त हो सकता है। आगे वर्णित है कि जो ज्ञान से युक्त संयमनिष्ठ व्यक्ति हैं, वे कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ की वृत्तियों का वमन या त्याग कर देते हैं और स्वतः ही तनावमुक्त हो जाते हैं।
(क) उत्तराध्ययनसूत्र में राग-द्वेष और कषाय
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आज विश्व की एक प्रमुख समस्या तनाव है। जैन धर्म के अनुसार, तनाव का मूल कारण राग-द्वेष एवं कषाय हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक प्रकार से दुःखों के कारणों को वर्णित किया गया है। तनाव एक प्रकार का दुःख ही है । उत्तराध्ययन के अनुसार दुःख अर्थात् तनाव का कारण अविद्या, मोह, कामना, आसक्ति और राग द्वेष आदि हैं। 83 इसमें कहा गया कि राग कामना की जननी है। 4 कामनाएँ इसीलिए उत्पन्न होती हैं कि हम वस्तुओं पर राग-भाव रखते हैं। राग अन्य कुछ नहीं, मात्र 'पर' में ममत्व का आरोपण है । जहाँ ममत्व या आसक्ति होती है वहाँ राग-द्वेष की धारा सतत चलती रहती है। साध्वी डॉ. विनीतप्रज्ञाजी ने लिखा है कि तनाव ( दुःख) की प्रक्रिया का क्रम निम्न है
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से अबुज्झमाणे ओवहए
समुवेई । वही - 2 / 3/80
रागो-य दोसों वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति कम्मं च जाईमरणस्य मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति । कामाणुगिद्विप्पभवं खुदुक्खं । -
उत्तराध्ययनसूत्र- 32/7
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उत्तराध्ययनसूत्र 32/19
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