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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
वस्तुतः, “पर' पर 'स्व' का मिथ्या आरोपण या ममत्वबुद्धि ही उसके काषायिक-चित्तवृत्तियों के उत्पन्न होने का कारण होती है और यही राग-द्वेष या क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायवृत्तियों को जन्म देती है और तद्जन्य दुःख का कारण होती है।
यद्यपि राग एवं द्वेष में भी तनाव-युक्त अवस्था का मूल कारण तो राग को ही बताया गया है। जब किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति राग होता है, तो उसके विरोधी या बाधक के प्रति द्वेष होता है। इस प्रकार, राग-द्वेष से व्यक्ति में कषाय-भावना उत्पन्न होती है। व्यक्ति हमेशा इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त रहता है। आसक्तिवश उनकी पूर्ति करने में अगर कोई बाधा आती है, तो उसके अंदर एक रोष उत्पन्न हो जाता है। रोष ही क्रोध का समानार्थक शब्द है। क्रोध में व्यक्ति विवेकशून्य होता है। उसे सही-गलत की पहचान नहीं होती और अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने हेतु वह अलग-अलग ढंग से 'मायाचार करता है, अर्थात् छल-कपट की भावना से मायाजाल बुनता है, क्रोध करता है और वह क्रोध हिंसा को जन्म देता है। हिंसक व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है। पुनः, मान या अहंकार के पोषण हेतु छल-कपट करता है। आचारांग में लिखा है कि राग-द्वेष से युक्त प्रमादी जीव छल-कपट करता हुआ पुन:-पुनः गर्भ में आता है। दूसरी ओर, पर पदार्थों पर 'मेरेपन का आरोपण कर अभिमान भी करता है। आचारांग में मान को पतन और दुःख अर्थात् तनाव का कारण बताया है -
दुहओ जीवियस्य परिवंदन-माणण-पूयणाए,
जंसि एगे पमायंति ||12011 अर्थात् रागद्वेष से संतप्त कई-एक जीव अपने जीवन के मानसम्मान के लिए, पूजा–प्रतिष्ठा के लिए प्रमाद-हिंसा आदि पापों का आसेवन करते हैं। प्रमादी व्यक्ति सदा तनावग्रस्त रहता है। अभिमान में व्यक्ति में और अधिक पाने की लालसा बढ़ जाती है। आचारांग में कषायवृत्तियों की उत्पत्ति का मूल कारण राग ही कहा है। "खेत, मकान आदि में आसक्त मनुष्य को असंयति जीवन ही प्रिय लगता है। विभिन्न रंगों के वस्त्रों से युक्त तथा चन्द्रकान्ता आदि मणियों वाले कुण्डल एवं स्वर्ण आदि के आभूषणों से युक्त रूपवती स्त्रियों को प्राप्त करके उनमें
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आचारांग - 3/1/110 आचारांग - 3/3/120
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