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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 45 नामक ग्रन्थ में लिखा है- “राग एवं द्वेष कषाय के दो भेद हैं।"58 इन्हीं राग-द्वेष से काषायिक-वृत्तियों का जन्म होता है और व्यक्ति स्व-स्वभाव को भूल कर 'पर' में आसक्त होता है। 'पर' के प्रति आसक्ति के निमित्त से राग और राग के निमित्त से द्वेष वृत्ति जाग्रत होती है। व्यक्ति जब परिजन एवं स्वजन आदि के प्रति 'मेरेपन' का भाव बना लेता है, तब उनके प्रति राग उत्पन्न होता है और जिनके प्रति राग उत्पन्न होता है, उनके विरोधियों के प्रति ‘परायेपन का भाव बनाता है, जिससे द्वेष उत्पन्न होता है। व्यक्तियों के साथ-साथ वह वस्तुओं के प्रति भी 'मेरे' एवं 'पराये का भाव रखने लगता है। शरीर और इन्द्रियों को अपना मानकर उनके प्रति राग-भाव रखता है। इसी रागवश व्यक्ति कई प्रकार के पापकर्म करता हुआ दुःख एवं परिताप को भी प्राप्त होता है। अपनों के वियोग की चिन्ता के दुःख को भी हम तनाव का ही एक रूप कह सकते हैं। इस राग भाव को ही किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति कहा जाता है और यही राग भावना व्यक्ति में कषाय की वृत्ति को जन्म देती है। अपनी इन्द्रियों की विषय-वासना की पूर्ति हेतु एवं स्वजनों एवं परिजनों की आसक्ति हेतु व्यक्ति क्या-क्या नहीं करता। सारा जीवन भोगों की आकांक्षा या तृष्णा में बिता देता है और अंत में तनावयुक्त या उद्विग्न अवस्था में ही मरण को प्राप्त करता है। आचारांगसूत्र में भी तनाव का मूल कारण इन्द्रियों के विषय-भोगों की वासना तथा तद्जन्य कषायों को ही बताया गया है। उसमें वर्णित है -"इन्द्रियों के विषयों का अभिलाषी महान परिताप एवं दुःख का अनुभव करता है। व्यक्ति राग-द्वेष के वशीभूत हुआ, तनाव की स्थिति को उत्पन्न करता है। यह मेरी माता है, यह मेरी बहन है, यह मेरा भाई है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे स्वजन हैं; इन्होंने मेरे लिए भोजन, वस्त्र, मकान आदि की व्यवस्था की है, अतः मैं भी इनके लिए यह करूँगा। इस . प्रकार अपनों के लिए एवं इन्द्रिय विषयों में आसक्त व्यक्ति प्रमादी बनकर दिन-रात बिना विचार किए दुष्कर्म करता है।"59 58 प्रशमरति, उमास्वाति, श्लोक - 31 "जे गुणे से मूलठाणे, जे मूल ठाणे से गुणे इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो-पुणो वसे पमत्ते तं जहाँ - माया मे, पिया मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धुआ मे, राहुसा मे, सहिसयणसंगंयसंधुआ मे विवित्तुवगरणपरिवट्टण भोयणच्छायण मे। इच्चत्यं गडिए लोय वसे पमत्ते अहो य राओय परितप्पमाणे कालाकालसमट्ठाई संजोगट्ठी, अट्ठालोय आलम्पे सहसाकारे विणिविरठचित्ते। आचारांग - 2/1/63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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