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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति आत्मशक्ति को जाग्रत करने का अर्थ है- आत्मा पर चढ़े अज्ञान या मिथ्यात्व के आवरण को हटाकर आत्मगुणों को जागृत करना। अनन्त-ज्ञान, निःस्वार्थ करुणा, अभय, आनंद, इच्छाओं पर विजय आदि आत्मा के ही गुण हैं। ये गुण प्रत्येक प्राणी में निर्द्वन्द्व आध्यात्मिक- सुख का अनुभव कराने में एवं तनाव को समाप्त करने में समर्थ हैं। आचारांग में भी कहा गया है- हे पुरुष! अपना (आत्मा का) निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। (क) जैन-दर्शन में तनाव का आधार राग-द्वेष और कषाय जैन धर्म का प्रत्येक सिद्धांत वैश्विक एवं वैयक्तिक-शांति का प्रतिपादन करता है। जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य है- प्रत्येक प्राणी मुक्त हो। मुक्ति प्राप्त करने का अर्थ है -कषायों से या तनाव से मुक्त हो जाना, अर्थात् व्यक्ति उस अवस्था को प्राप्त करे, जहाँ उसकी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, चाह, चिन्ता आदि समाप्त हो जाएं। जैनदर्शन का यह मानना है कि व्यक्ति के तनाव का मूल कारण राग-द्वेष व कषाय ही हैं। आचारांगसूत्र का एक पद है -जं दुक्खं पवेदितं'। इस पद में 'दुःख' शब्द से दुःख के हेतुओं का भी ग्रहण किया गया है और दुःख के हेतु राग-द्वेष या कषाय माने गए हैं। आचारांगसूत्र में अनेक स्थानों पर यह कहा गया है कि संसार के परिभ्रमण का कारण राग-द्वेष एवं कषाय हैं। जब व्यक्ति राग-द्वेष एवं कषाय का त्याग कर देता है, तभी वह मुक्ति को प्राप्त करता है। पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था को ही मोक्ष कहा जाता है। आचार्य हरिभद्र ने स्पष्टतः कहा है – कषामुक्तिः मुक्तिःकिलरेव। आचारांग में लिखा है कि शब्द और रूप आदि के प्रति जो राग-द्वेष नहीं करता है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मोक्ष वह अवस्था है, जहाँ तनाव के कारणों का अंत हो जाता है। अतः, हम यह कह सकते हैं कि राग-द्वेष एवं कषाय आदि जो तनाव के कारण हैं, इनका पूर्णतः त्याग ही तनाव मुक्ति है। आचारांगसूत्र – 1/3/3/126 जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं तस्य दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरांति, इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो। जे अणण्णदंसी से अणण्णाराये, जे अणण्णारामे से अणण्णंदसी। आचारांगसूत्र - 2/6/101 आचारांगसूत्र - 3/1/108 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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