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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
तभी से दुःख उत्पन्न हो जाता है, जो अंत तक बना रहता है। जैसे कोई वस्तु प्रिय लगी, तो उसे पाने में दुःख उठाना होता है, जब मिल गई, तो वह नष्ट न हो, उसका कभी वियोग न हो- ऐसी चिंता होती है । उसका वियोग या उसे नष्ट होने पर भी दुःख होता है । यह दुःख एवं चिंताएँ तनाव के ही रूप हैं। 'अध्यात्मसार' नामक ग्रन्थ में भी स्पष्टतया लिखा है कि जिस प्रकार कोई प्रेमी पहले प्रेमिका की प्राप्ति के लिए दुःखी होता है, उसके बाद उसका वियोग न हो, इसकी चिंता में दुःखी होता है । अतः, भौतिक - उपलब्धियाँ प्रारम्भ से अन्त तक दुःख या तनाव ही उत्पन्न करता है ।
आध्यात्मिकता से ही भौतिक - दुःखों का अंत किया जा सकता है। जब व्यक्ति को आत्मतत्त्व का बोध होगा, उसमें आत्मिक - गुणों का विकास होगा, तभी व्यक्ति को सच्चे सुख एवं शांति की अनुभूति हो सकती है। आध्यात्मिक जीवन-शैली ही व्यक्ति को अशांति, हिंसा, क्रूरता भ्रष्टाचार, चिंता आदि से बचा सकती है। आज विज्ञान के इस युग में व्यक्ति को प्रत्येक सुख - सुविधा मिल रही है, फिर भी व्यक्ति सुख की खोज कर रहा है, क्योंकि उसे सच्चा सुख मिल नहीं पाया है। वर्तमान विश्व तनावग्रस्त है। इस युग में अध्यात्म की अत्यंत आवश्यकता है। साध्वी प्रीतिदर्शनाजी अपने शोधग्रन्थ में लिखती हैं कि हमें विज्ञान का विरोध नहीं है, पर भौतिक जीवनदृष्टि के स्थान पर आध्यात्मिकजीवनदृष्टि तो रखनी ही होगी। 51
तनावरूपी शत्रु से लड़ने का एकमात्र शस्त्र आध्यात्मिक– जीवनदृष्टि है। हमारी आत्मा में सद्गुणों की असीम शक्तियाँ है । हमें उन शक्तियों को जाग्रत करने की आवश्यकता है। वे शक्तियाँ ही हमें तनावरूपी शत्रु से विजय प्राप्त कराने वाली हैं। राजिन्दरसिंह ने अपनी कृति आत्मशक्ति में लिखा है- "हमारे अन्तर में एक शक्ति है, ऊर्जा है जो हमें भय. पर विजय पाने के योग्य बनाती है।"52 हमें आत्म-ऊर्जा से तनावों को दूर करना हैं। अध्यात्म से ही तनावमुक्ति सम्भव है। अध्यात्म ही एकमात्र उपाय है-: वैयक्तिक एवं वैश्विक - शांति का ।
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50 अध्यात्मसार - अध्यात्मोपनिषद् एवं ज्ञानसार के संदर्भ में (शोध), सा. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ.45 अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद एवं ज्ञानसार के संदर्भ में (शोध), सा. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ. 45 52 आत्मशक्ति, राजिंदरसिंह, पृ. 1
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