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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
का प्रयत्न करो, पूर्ण रूप से कभी नहीं भरता है, अर्थात् लोभी मन कभी भी संतुष्ट एवं तृप्त नहीं होता। उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है - 'सरित्सहस्त्र दुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः तृप्तिमानेंद्रिग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना हजारों नदियां सागर के उदर में नियमित रूप से गिरती है, फिर भी क्या सागर को तृप्ति हुई ? सागर की तरह पाँच इन्द्रियों एवं मंन का स्वभाव भी है- अतृप्त रहना। स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है कि चार स्थान सदैव अपूर्ण ही रहते हैं___ 1. सागर 2. श्मशान 3. पेट और 4. तृष्णा (मन)
भौतिक सुख प्राप्त करने की लालसा व्यक्ति को तनावग्रस्त कर देती है और भौतिक-सुखों को ही सच्चा सुख मानने वाले जीव सदैव दुःख का अनुभव करते हैं। भौतिकसुख प्राप्त करने की इच्छा को, तनाव को या दुःख को समाप्त करने के लिए आध्यात्मिक आनन्द की ओर अग्रसर होना होगा। जब तक सम्यक आत्मबोध नहीं होता है, तभी तक सांसारिक विषय-वासनाओं में मनुष्य की रुचि बनी रहती है। सच्चा सुख या आनन्द तो वह होता है, जो एक बार प्राप्त होने पर कभी नहीं जाता है। वह सदैव शांति देता है और वही सुख आत्मिक-सुख या आनन्द है। आत्मिक-आनन्द तनाव का अंत है।
तनावों को उत्पन्न करने वाले इन्द्रिय, मन आदि के विषयों की आकांक्षा या इच्छा से रहित आत्मिक-सुख ही वास्तविक सुख है। "अपूर्ण विद्या, धूर्त मनुष्य की मैत्री तथा अन्याययुक्त राज्य-प्रणालिका जिस प्रकार अंत में दुःख-प्रदाता होती है, उसी प्रकार सांसारिक-सखभोग भी वास्तविक सुख नहीं हैं, वे भी अंत में दुःख-प्रदाता ही बनते हैं। 49 - मेरे विचार से भौतिक-सुखों की आकांक्षा सिर्फ अंत में ही दुःखी करती है, ऐसा भी नहीं है। जब सुख पाने की लालसा उत्पन्न होती है,
ज्ञानसार, इन्द्रियजयाष्टक-7/3, यशोविजयजी स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थानक अध्यात्मसार -अध्यात्म महात्म्य अधिकार, उपा. यशोविजयजी . अपूर्णा विधेव प्रकटखलमैत्रीव कुनय, प्रणालीपास्थाने विधववनितायौवनभिव। - अध्यात्मसार - अध्यात्म महात्म्य अधिकार
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