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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति किया है, शिक्षा और सुखसुविधा प्राप्त करने के कई साधनों का विकास किया है, फिर भी हर एक व्यक्ति अशांत है। जहाँ एक ओर अनेक भौतिक सुख-सुविधाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर दुःख और समस्याओं का भी अम्बार लगा हुआ है। 38 हमें यह जान लेना चाहिए कि आखिर तनाव नामक इस विश्व - व्यापी बीमारी के कारण क्या हैं? हमें उन कारणों को खोजकर उनका निराकरण करना होगा, तभी हमारे तनाव से मुक्ति पाने के प्रयास सफलता को प्राप्त कर सकेंगे। जैसा कि पूर्व में कहा गया है- तनाव का सम्बन्ध देह एवं व्यक्ति की मानसिकता से है। जब व्यक्ति आत्मचिंतन करना प्रारम्भ कर देता है और देहातीत अवस्था को प्राप्त होता है, तब देह एवं मन से ऊपर उठ जाता है। उस अवस्था में वह अध्यात्म-पथ का पथिक बनने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार शांति प्राप्त करने का सही या सम्यक् मार्ग पा लेता है। दूसरे शब्दो में कहें, तो जहाँ तनावों का अंत होता है वहीं, अध्यात्म का प्रारम्भ होता है। अध्यात्म में व्यक्ति देह एवं मन से परे होकर ज्ञाता - द्रष्टा या साक्षी - भाव में जीता है। जब वह आत्मा को महत्त्व देता है, तब उसके सारे प्रयत्न भौतिक सुख-साधनों को प्राप्त करने के लिए नहीं होते अपितु आत्म-शांति को प्राप्त करने के लिए होते हैं। व्यक्ति शरीर में होने वाले हर सुख - दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है। वह दैहिक - सुख में न तो प्रसन्न होता है और न ही दैहिक - दुःख में दुःखी होता है । आचारांगसूत्र में अध्यात्म - पद का अर्थ "प्रिय और अप्रिय अनुभूतियों का समभावपूर्वक संवेदन" किया गया है। 13 देह व मन में होने वाली वृत्ति तनाव है। इसी के विपरीत, आत्मा में होने वाली समत्व की अनुभूति तनाव - मुक्ति है । आचांरागभाष्य में अध्यात्म को परिभाषित करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं- अन्तरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है । 14 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अध्यात्म में व्यक्ति में दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् - वृत्ति जाग्रत हो जाती है । उसे स्वयं के प्रिय और अप्रिय के अनुभव में सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है, मात्र साक्षीभाव की अनुभूति होती है। व्यक्ति की तनावमुक्ति तभी सम्भव है, 44 43 आचारांगसूत्र - 7/47 44 आचारांगभाष्य Jain Education International आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 75 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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