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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
नहीं सकते, चाहे प्रायोगिक आधार पर उसे पकड़ा नहीं जा सकता हो । प्लेटो ने भी मन का अस्तित्व बताते हुए कहा है - " मन में प्रेम, तृष्णा, वासना आदि संवेग होते हैं। "3
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मन को प्रयोगशाला में चाहे न पकड़ा जा सकता हो, किन्तु प्रत्येक स्वसंवेदनशील व्यक्ति अपने मन की अवस्था एवं वृत्तियों को जानता है, अतः आज तनाव और उसके कारणों का विश्लेषण दैहिक-आधार पर न करके चैतसिक - मनोविज्ञान के आधार पर करना होगा । मन या चित्त चाहे हमारी प्रयोगशाला में न पकड़े जा सके हों, किन्तु अनुभव के स्तर पर हर व्यक्ति उन्हें जानता है । वस्तुतः, आज हम विज्ञान के आधार पर जिसे तनाव के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं, वह न तो तनाव का हेतु है और न तनावपूर्ण अवस्था है, क्योंकि तनाव एक चैतसिक-स्थिति है, जिसे प्रयोगशाला में देखा नहीं जा सकता है ।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की भूल यह हैं कि वे तनाव की दैहिक - अवस्था को ही तनाव मान रहे हैं। जो लोग शरीर में होने वाले दैहिक असामान्य रासायनिक परिवर्तन को ही' तनाव कहते हैं, वे भी सत्य से अपरिचित ही हैं। सत्य यह है कि मानसिक असामान्य परिवर्तन ही शारीरिक - रसायनों में परिवर्तन का कारण है और यही मानसिक असामान्यता ही तनाव है। आज हम तनाव की व्याख्या न करके तनाव के दैहिक - परिणामों की या अधिक-से-अधिक हमारे व्यवहार के असंतुलन की अवस्था की व्याख्या कर रहे हैं। तनावमुक्ति के लिए या तनाव - प्रबंधन के लिए आवश्यकता है- मानसिक-संवेदनाओं को देखने की। यदि हम दैहिक - परिणामों को मानसिक - संवेदनाओं के रूप में देखेंगे, तो हम मानसिक तनाव के साथ-साथ दैहिक - तनाव से भी मुक्त होने में सफल हो सकेंगे। जैनदर्शन के अनुसार भी तनाव में मन की प्रधानता रही है। मन ही संसार भ्रमण का कारण, अर्थात् तनावपूर्ण स्थिति का हेतु है ।
वस्तुतः, मनोवैज्ञानिक आत्मा व मन को एकरूप मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन में मन को एक मनोदैहिक - संरचना माना गया है, जिसके दो पक्ष हैं- द्रव्य - मन और भाव-मन । तनाव का कारण भाव-मन है, जिसके मलिन होने पर या असंतुलित होने पर तनाव उत्पन्न होता हैं।
38 मनोविज्ञान की पद्धति एवं सिद्धांत, डॉ. जे. डी. शर्मा, पू. 20
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