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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
कलह होना, आत्मविश्वास का समाप्त हो जाना आदि । जो व्यक्ति इस तनाव से ग्रस्त होते हैं, वे खुद यह अनुभव नहीं कर पाते कि वे तीव्र तनाव की स्थिति में हैं। ऐसा तनाव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक होता है ।
तनाव के व्यक्ति की मानसिकता पर निम्न प्रभाव होते हैं
• व्यक्ति बात करते-करते अचानक चुप हो जाता है।
• तनावयुक्त व्यक्ति को अंधेरे में रहना अच्छा लगता है।
• किसी से बात करने की इच्छा ही नहीं होती है, अर्थात् व्यक्ति एकान्तप्रिय हो जाता है ।
• चिड़चिड़ाहट या क्रोध उसका स्वभाव बन जाता है।
• कभी-कभी व्यक्ति का स्वभाव क्रोधादि की स्थिति में पहले से विपरीत भी हो जाता है और कभी-कभी कोई उसे कितना भी सताए, वह चुपचाप सहन करता रहता है।
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काम करते-करते व्यक्ति अपना होश खो देता है। उदाहरणार्थव्यक्ति गाड़ी चलाता रहता है, लेकिन मस्तिष्क यही सोचता रहता है कि अब क्या करूंगा, अब यह कैसे होगा आदि । चिन्ता में वह इतना खो जाता है कि आँखें खुली होते हुए भी उसे कुछ दिखाई नहीं देता और इसके परिणामस्वरूप दुर्घटना घटित हो जाती है।
• मस्तिष्क इतना तनावग्रस्त हो जाता है कि व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है, जिसके कारण वह किसी भी कार्य को सही ढंग से नहीं कर पाता है, परिणाम यह होता है कि उसे सदा असफलता ही हाथ लगती है ।
. दुःख से उत्पन्न तनाव में व्यक्ति को रोने या विलाप करने से मन में हल्कापन महसूस होता हैं ।
• व्यक्ति को सही-गलत का भान नहीं रहता है।
• व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं रह पाती है ।
• शांति का अनुभव नहीं होने पर वह बैचेन रहता है ।
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