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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति श्रम का होना आदि कारणों से जो तनाव उत्पन्न होता हैं, उसे अल्पकालीन संवेदनाजन्य तनाव कहा गया है। तनाव की इस स्थिति में व्यक्ति बहुत ही कम समय के लिए चिंतित या परेशान रहता है। समय निकल जाने पर या कार्य हो जाने पर वह अपनी सामान्य अवस्था में आ जाता है। इस तरह के तनाव का प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, सिरदर्द, पीठदर्द, पेटदर्द, बदनदर्द आदि होने लगता है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। ऐसे तनाव से शरीर में थकावट महसूस होती है, क्योंकि उपर्युक्त छोटे-छोटे कार्यों में शारीरिक श्रम या दैहिक-शक्ति . अधिक व्यय हो जाती है। सामान्य संवेदनाजन्य तनाव - जिस व्यक्ति पर कई तरह की जिम्मेदारियां होती हैं, बहत अधिक कार्यभार होने से उसकी कार्यप्रणाली अव्यवस्थित हो जाती है। ऐसा व्यक्ति हमेश शीघ्रता से कार्य सम्पन्न करने का प्रयत्न करता है, किन्तु उसका कोई भी कार्य समय पर पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसे तनाव को सामान्य संवेदनाजन्य तनाव कहा जाता है। प्रत्येक संस्था के मुख्य व्यक्ति पर जिम्मेदारियां या कार्यभार अधिक होता है। ऐसे व्यक्ति को मुख्यतः अपने घर या कार्यालय का महत्वपूर्ण सदस्य होने के कारण मुखिया कहा जाता है। उसका पूरा जीवन इसी प्रकार के तनाव में व्यतीत हो जाता है। इस प्रकार का तनाव लम्बे समय तक बना रहता है। इसका प्रभाव व्यक्ति के शरीर के साथ-साथ मस्तिष्क पर भी पड़ता है। अल्पकालीन संवेदनाजन्य तनाव में भी मस्तिष्क पर प्रभाव तो पड़ता है, किन्तु तनाव के समाप्त होने पर अल्प समय में ही मस्तिष्क व शरीर- दोनों स्वस्थ हो जाते हैं। सामान्य संवेदनाजन्य तनाव में शरीर एवं मस्तिष्क- दोनों ही असंतुलित हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अति-रक्तचाप, सिरदर्द, सीने में दर्द, हृदय संबंधी बीमारियाँ आदि रोग हो जाते हैं, जिनमें से कुछ तो जीवन-पर्यन्त रहते हैं। तीव्र संवेदनाजन्य तनाव - तीनों प्रकार के तनावों में यह सबसे गंभीर है। यह तनाव भी लम्बे समय तक रहता है और व्यक्ति को दुःखी करता रहता है। किसी घटना के घटित होने पर जो तीव्र वेदना या संवेदन होते हैं, उनका व्यक्ति के मन या मस्तिष्क पर असहनीय प्रभाव पड़ता है, जैसे- गरीब हो जाना, जीवन में निरन्तर असफलता मिलना, घर-परिवार में सदैव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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