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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
__ यही कारण है कि डॉ. सुरेन्द्र वर्मा ने क्लेश, दुःख, भय इत्यादि भावों को तनाव का समानार्थक कहा है।
यहाँ हम यह कह सकते है कि जहाँ दुःख है, वहा तनाव है, अतः तनाव दुःखरूप है, इसलिए दुःख को तनाव का कारण नहीं, अपितु उसका समानार्थक कहा गया है।
दुःख, क्लेश या भय है, तो वह तनाव ही है। जब किसी भी ऐसी घटना के घटित होने पर जिससे व्यक्ति को दुःख, क्लेश या भय होता है, तनाव की अवस्था हो जाती है। दुःखादि तनावों से युक्त व्यक्ति की प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग होती हैं, इसलिए इन्हें तनावों के अलग-अलग रूप कह सकते हैं। वैसे तो विफलता, विरोध व दबाव की स्थिति में भी प्रतिक्रियाएँ तो अलग-अलग ही होती हैं, इन्हें भी तनाव के ही विभिन्न रूप कह सकते हैं, क्योंकि इनके कारण दुःख, क्लेश आदि जो भाव उत्पन्न होते है, वे तनाव ही हैं, जैसे सफलता नहीं मिलने पर दुःख होगा, विरोधी से क्लेश होगा एवं किसी कार्य को करने के लिए बाध्य होने के पीछे कोई-न-कोई भय होगा। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भारतीय दार्शनिक डॉ. सुरेन्द्र वर्मा ने जो दुःख, क्लेश व भय को तनाव का समानार्थक्र कहा है, वह इस कारण से कि ये तनाव के ही विविध रूप हैं, अतः दुःख, क्लेश, भय आदि के भावों को सामान्य रूप से तनाव कह सकते हैं। एक वेबसाइट पर तनाव के निम्न तीन प्रकार भी मिले हैं - 1. अल्पकालीन संवेदनाजन्य तनाव, 2. सामान्य संवेदनाजन्य तनाव 3. तीव्र संवेदनाजन्य तनाव । अल्पकालीन संवेदनाजन्य तनाव -
दैहिक-गतिविधियों का असामान्य हो जाना, किसी कार्य को मर्यादित समय में पूर्ण करने का उत्तरदायित्व आ जाना, आवश्यक वस्तु, जैसे-चाबी आदि का कहीं रखकर भूल जाने पर, उसे खोजने में अधिक.
34 समता सौरभ, डॉ सुरेन्द्र वर्मा, जुलाई-सितम्बर 1996, पृ.39
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