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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
उज्ज्वल एवं प्रशस्त रंग पाए जाते हैं। लेश्याएँ जितनी-जितनी मात्रा में अशुद्ध होती है, उसी के अनुरूप उनके रंग भी कृष्ण, मलिन, अप्रकाशक और अशुद्ध होते हैं। इस प्रकार, रंगों का सम्बन्ध हमारी आध्यात्मिक-शुद्धि और अशुद्धि से भी है। जब रंगों का सम्बन्ध हमारी आध्यात्मिक-शुद्धि और अशुद्धि से हो, तब मानसिक संतुलन और आत्मा की शुद्धि के लिए रंगों का ध्यान किया जा सकता है। जैनदर्शन में इसे लेश्या-ध्यान की साधना कहा जाता है। जैसी कर्मवर्गणाएँ होती हैं, वैसी ही हमारी भावधारा होती है। आत्मा का अपना कोई रंग नहीं होता। जिस रंग की कर्मवर्गणाएँ आती हैं, आत्मा के द्रव्यकर्मजन्य परिणाम भी वैसे ही रंग के हो जाते हैं और जैसे रंग कर्मजन्य परिणामों के होते हैं, वैसी ही हमारी लेश्या होती है। इसलिए लेश्या की शुद्धि के लिए लेश्या/रंग-ध्यान की प्रक्रिया अपनाना होगी। लेश्याध्यान-प्रक्रिया - लेश्याध्यान का प्रयोग प्रेक्षाध्यान-साधना--पद्धति का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। प्रेक्षा-ध्यान के प्रणेता आचार्य महाप्रज्ञजी ने लेश्या-ध्यान की निम्न सरल विधि बताई है - ध्यान की विधिon - प्रथम चरण - कायोत्सर्ग (relaxation) -पैर से सिर तक शरीर को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर प्रत्येक भाग पर चित्त को केन्द्रित कर, स्वतः सूचन (auto-suggestion) के द्वारा शिथिलता का सुझाव देकर पूरे शरीर को शिथिल करना है। पूरे ध्यान-काल तक इस कायोत्सर्ग की मुद्रा को बनाए रखना होगा तथा शरीर को अधिक-से-अधिक स्थिर और निश्चल रखने का अभ्यास करना होगा। 5 से 7 मिनट तक) द्वितीय चरण - अन्तर्यात्रा - रीढ़ की हड्डी के नीचे के छोर (शक्तिकेन्द्र) से मस्तिष्क के ऊपरी छोर (ज्ञान केन्द्र) तक सुषुम्ना (Spinal Cord) के भीतर चित्त को नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे घुमाया जाता है। पूरा ध्यान सुषुम्ना में केन्द्रित कर वहां होने वाले प्राण के प्रकम्पनों (Vibrations) का अनुभव किया जाता है। (5 से 7 मिनट तक)
622 प्रेक्षा ध्यान : लेश्या-ध्यान, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 37-38
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