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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति कभी शुभ लेश्या से अशुभ लेश्या में परिवर्तित होते रहते हैं । लेश्या ( मनोवृत्ति) का यह परिवर्तन व्यक्ति के व्यवहार एवं स्वभाव में भी परिवर्तन कर देता है । लेश्याओं के बदलाव की प्रक्रिया में लेश्या - ध्यान सशक्त भूमिका निभाता है । लेश्या और ध्यान में गहरा सम्बन्ध है। जब व्यक्ति आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान में होता है, तो अशुभ लेश्या होती है और जब धर्मध्यान और शुक्लध्यान में होता है, तो शुभ लेश्या होती है। अशुभ विचार एवं कुत्सित व्यवहार अशुभ लेश्या को जगाते हैं और शुभ विचार एवं सम्यक् व्यवहार शुभ लेश्या को जगाते हैं, अतः 'व्यक्तित्व - परिष्कार का महत्त्वपूर्ण सूत्र लेश्या का विशुद्धिकरण है। 620 लेश्या - ध्यान का सिद्धांत रंगों पर आधारित है। मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि रंग एक माध्यम है- हमारे विचारों, आदर्शों, संवेगों, क्रियाओं और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का । फेबर बिरेन (Faber Birren ) रंग - रुचि को संवेदन, ज्ञान और चिन्तन का परिणाम मानते हैं। साउथआल (Southall) का मानना है- 'रंग न तो चमकदार वस्तु का गुण है और न ही चमकदार विकिरण का यह सिर्फ चेता का विषय है। 621 • ज़ैनदर्शन में आध्यात्मिक - अशुद्धि का हेतु भावों के साथ कर्मवर्गणाएँ भी मानी गई हैं। जैनदर्शन के अनुसार, कर्मवर्गणाएँ पौद्गलिक हैं और पुद्गल में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पाए जाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि पौदगलिक कर्मों का प्रभाव हमारी आध्यात्मिक - विशुद्धि पर भी पड़ता है। कर्मों की जितनी - जितनी निर्जरा होती है, उतनी - उतनी आत्मा विशुद्ध होती जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्म-विशुद्धि का सम्बन्ध द्रव्य वर्गणाओं की निर्जरा के साथ रहा हुआ है। आत्मा की विशुद्धि का सीधा सम्बन्ध रंगों के साथ नहीं है, किन्तु आत्मा के मलिन परिणामों का सम्बन्ध कर्मवर्गणाओं के साथ होने के कारण और कर्मवर्गणाओं का सम्बन्ध रंगों के साथ होने के कारण आत्मविशुद्धि का संबंध भी रंगों से जोड़ा जा सकता है, क्योंकि. कर्मवर्गणाएँ जितनी कम और जितनी विशुद्ध होंगी, उतनी ही भावों की विशुद्धि होगी । इसी कारण से यह माना गया है कि शुभ लेश्याओं में भी 620 621 लेश्या और मनोविज्ञान मुमुक्षु शांता जैन, पृ. 197 Faber Birren, Colour Psychology and colour Therapy. P. 184 307 Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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