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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
जाना, किसी अपने की मृत्यु हो जाना, प्रिय वस्तु का खो जाना, किसी से धोखा मिलना, पारिवारिक समस्याएँ, सामाजिक-समस्याएँ आदि। हमें प्रतिदिन किसी-न-किसी तनाव का सामना तो करना ही पड़ता है, जिसका असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर पड़ता है। इस प्रकार वे परिस्थितियां, जिनसे हमें समझौता करना पड़ता है, तनावपूर्ण स्थिति को जन्म देती हैं। इच्छाओं की पूर्ति न होने पर उनके साथ समन्वय स्थापित करने से मस्तिष्क में एक दबाव का अनुभव होता है, यह दबाव भी तनाव है।
वस्तुतः देखा जाए, तो तनाव की एक सामान्य परिभाषा यह हो सकती है कि ऐसी कोई भी स्थिति या घटना जिससे व्यक्ति को दुःख, भय, चिंता या परेशानी हो, वह तनाव है। शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक मांगों के साथ अगर अनिच्छापूर्वक कोई समझौता करना पड़ता है, तो उससे भी कहीं-न-कहीं मन में दुःख होता है। मनोवैज्ञानिक अरुणकुमार एवं आशीषकुमार सिंह की पुस्तक 'व्यक्तित्व का मनोविज्ञान' एवं एक पाश्चात्य-मनोवैज्ञानिक, जिनका एक आलेख www.helpguide.org पर उपलब्ध है, दोनों ने तनाव को विषाद शब्द से परिभाषित किया है। दोनों ने दैनिक जीवन में होने वाली घटनाओं से उत्पन्न होने वाले विषाद (दुःख) को ही तनाव कहा है। भारतीय दार्शनिकों ने इसी विषाद को दुःख कहा है। तनाव के प्रकार एवं उनके परिणाम -
हेन्ससेली ने तनाव के दो प्रकार बतलाएँ हैं 2- सकारात्मक तनाव एवं नकारात्मक तनाव। प्रत्येक स्थिति में चाहे वह सकारात्मक तनाव की हो या नकारात्मक तनाव की, सामंजस्य बिठाने की जरूरत तो पड़ती ही है। कुछ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा ही है किजहाँ हमारी इच्छाओं या मांगों के साथ समझौता करना पड़े, वह तनावपूर्ण स्थिति है। जैनधर्म के अनुसार, सकारात्मक तनाव को शुभ आस्रव एवं नकारात्मक तनाव को अशुभ आस्रव कह सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति ने मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी ली है, तो उस हेतु सामग्री आदि मंगवाना, कार्य पूर्ण करवाना आदि की चिन्ता भी उसे तनावग्रस्त बनाएगी, किन्तु यह सकारात्मक तनाव होगा, इसके विपरीत, अगर कोई व्यक्ति अपना घर बनवाता है और उसके लिए लायी गई
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Abnormal Psychology and modern life 11th edition Page – 14
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