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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
युक्त होना है। इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ वस्तुतः तृष्णा और राग-द्वेष की वृत्तियों से जन्म लेती हैं, अतः यदि चेतना और जीवन को तनावमुक्त बनाना है, तो निर्विकल्पता की साधना आवश्यक है, क्योंकि तृष्णा और राग-द्वेष की प्रवृत्ति विकल्पों को जन्म देती है और विकल्पों
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चित्त तनावयुक्त बनता है, जिसका प्रभाव हमारी शारीरिक स्थिति पर भी पड़ता है, अतः तनावमुक्ति के लिए विपश्यना / प्रेक्षाध्यान की साधना आवश्यक है। प्रेक्षा- ध्यान और विपश्यना से तनावमुक्ति किस प्रकार होती है, यहाँ इसे समझ लेना भी आवश्यक है । विपश्यना या प्रेक्षाध्यान में चित्त को श्वाससोच्छ्वास दैहिक - संवेदनाओं अथवा चैत्तसिक अवस्थाओं के प्रति सजग बनाया जाता है और जब चेतना ज्ञाता-द्रष्टा, सजग या अप्रमत्त हो जाती है, तो विकल्प विलीन (शून्य) होने लगते हैं, क्योंकि सजगता या अप्रमत्त ( ज्ञाता - द्रष्टाभाव) दशा में रहना और विकल्प करना - ये दोनों एक साथ सम्भव नहीं हो सकते। चेतना जब विकल्पों से जुड़ती है, तो नियमतः प्रमत्तदशा को प्राप्त होती है । इस सम्बन्ध में एक छोटा-सा प्रयोग कर सकते हैं।
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मान लीजिए कि हमें सौ श्वासोच्छ्वास की विपश्यना या प्रेक्षा करनी है, तो इस स्थिति में हम उन श्वासोच्छ्वास को देखते हुए सौ तक की गिनती पूरी करें। इस काल में यदि हम किसी विकल्प से जुड़ते हैं, तो श्वासोच्छ्वास के प्रति सजगता नहीं रहती है और गणना खण्डित हो जाती है, इसलिए जैन - परम्परा में ध्यान को श्वासोच्छश्वास की गणना से जोड़ा गया है। आवश्यक निर्युक्ति में स्पष्टतः यह कहा गया है कि साधक को चित्त - विशुद्धि के लिए श्वास-प्रश्वास का ध्यान करना चाहिए। 2 सूयगड़ो में भी मुनि को तनावमुक्ति और सजगता के लिए या विहार में भी मन की चंचलता को रोकने के लिए कहा है कि वह श्वास को शान्त और नियंत्रित कर विहार करे। 803 श्वास-प्रश्वास के प्रयोग से जो परिणाम प्राप्त होता है, उसे बताते हुए आयारो में लिखा है - "सहिए दुक्खमत्ताए पुट्ठो णो झंझाए श्वास को नियंत्रित और शांत करने वाला दुःख - मात्र से स्पृष्ट होने पर भी व्याकुल नहीं होता। 004 यह एक अनुभूतिजन्य तथ्य है कि आत्मसजगता, अप्रमत्तता या साक्षीभाव में
602 आवश्यक नियुक्ति - 15/4
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सूगड़ो - 1 / 2 / 52, देखें टिप्पण
अणि सहिए सुसंवुडे, धम्मंट्ठी उवहाणवीरिए ।
विहरेज्ज समाहितिंदिए आतहितं दुक्खेण लब्भते । ।
आयारो - 3/69, या देखें - प्रेक्षाध्यान: आगम और आगमोतर स्रोत । '
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