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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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लोभ का प्रतिपक्षी संतोष है, अतः संतोष-गुण की साधना करने से ही लोभ पर विजय प्राप्त की जा सकती है। संतोष व्यक्ति के तनावमुक्त होने में एक सहायक तत्त्व है।
दशवैकालिकसूत्र में चारों काषायिक-प्रवृत्तियों पर विजय पाने के उपाय बतलाए गए हैं - क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता (विनयभाव) से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतें।
. इन पर विजय पाना ही वास्तव में तनाव पर विजय पाना है, अर्थात् तनावों से मुक्ति पाना है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसी आशय से कहा है- “जब तक इन काषायिक-प्रवृत्तियों का क्षय नहीं होगा, उन पर जय प्राप्त नहीं होगी, तब तक मुक्ति संभव नहीं है।800 नासाम्बरत्वे, न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे, न च तत्त्ववादे, न पक्षसेवाश्रएण मुक्ति, कषायमुक्ति किलः मुक्तिरेव।901
'न दिगम्बर होने से, न श्वेताम्बर होने से, न तर्कवाद और न तत्त्वचर्चा से, न पक्ष-विशेष कर आश्रय लेने से मुक्ति प्राप्त है, वस्तुतः, कषायमुक्ति ही मुक्ति है, यह कषायमुक्ति ही तनावमुक्ति है। विपश्यना/ प्रेक्षाध्यान और तनावमुक्ति -
: भारतीय श्रमण-परम्परा में तनावमुक्ति के लिए दो प्रकार की ध्यान-साधना-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। एक- विपश्यना और दूसरीप्रेक्षाध्यान-साधना। वस्तुतः, विपश्यना और प्रेक्षाध्यान-दोनों साक्षीभाव की ध्यान-साधना का ही एक रूप हैं। दोनों में साधक को ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहने को कहा जाता है। दोनों ही अप्रमत्त दशा की साधना हैं। दोनों में ही मन और शरीर में जो कुछ हो रहा है, उसे सजगतापूर्वक देखते रहने की बात कही जाती है। वस्तुतः, दोनों ही मन को विकल्पों से मुक्त करने की साधनाएँ हैं। जैनदर्शन और बौद्धदर्शन- दोनों ही यह मानते हैं कि तनाव का मूल कारण मन का विकल्पों, इच्छाओं और आकांक्षाओं से
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उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं मज्जभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।। -दशवकालिक अ) कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च। संतोसेंण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए।। ब) क्षान्तया क्रोधो, मृदुत्वेन मानो, मायाऽऽर्जवेन च। लोभश्चानीहया, जयोः कषायाः इति संग्रहः ।। सम्बोध सप्ततिका, गाथा 2.
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