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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
नम्रता सिखाता है । तन को झुकाना ही विनय नहीं है, बल्कि मन को झुकाने पर ही अधिक सम्मान मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है कि मान पर विजय प्राप्त होने पर वह असातावेदनीयकर्म नहीं बांधता है तथा पूर्व में बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है। 593 असातावेदनीयकर्म तनाव उत्पन्न करता है, अतः तनावमुक्ति के लिए मान पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
माया - विजय के उपाय
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1.
“सोही उज्जूय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई, • 584 अर्थात् ऋजुभूत सरल व्यक्ति की ही शुद्धि होती है और सरल हृदय में ही धर्म-रूपी पवित्र वस्तु ठहरती है। शुद्धि का अर्थ ही सहजता या सरलता है, अतः ऐसा चिन्तन करने से माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
2.
झूठ, छल, कपट कभी नहीं टिकता, एक दिन सभी के समक्ष आ ही जाता है और यथार्थ स्वरूप का पता चलने पर दूसरे तो दुःखी होते ही हैं, हम भी तनावग्रस्त हो जाते है- ऐसा विचार निरन्तर करते रहना चाहिए।
3.
यह विचार करना चाहिए कि माया - कषाय अनन्त दुःखों (तनावों) का कारण है और तिर्यंच - गति का हेतु है | 595
4.
माया या कपटवृत्ति जब उजागर होती है, तो व्यक्ति पर से सभी अपना विश्वास खो देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप जब उस व्यक्ति को किसी की मदद की आवश्यकता होती है, तो कोई मदद नहीं करता । इस विचार से स्वयं चिन्तन करने से माया या कपट करने से डर लगने लगेगा |
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5. कभी-कभी व्यक्ति स्वयं अपने ही जाल में फँस जाता है, इसलिए कपट- प्रवृत्ति को छोड़कर सीधे - सरल तरीकों से कार्य करने का प्रयत्न करना चाहिए।
6.
माया का प्रतिपक्षी गुण सरलता है । माया तनाव उत्पन्न करती है तो सरलता उसके विपरीत होने के कारण तनावमुक्त करती है। इसलिए
593 माणं विजण वेयणिज्जं कम्मं न बंधई । पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । -
उत्तराध्ययनसूत्र - 3 / 12
माया तिर्यग्योनस्य - तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय - 6, सूत्र - 17
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उत्तराध्ययनसूत्र. - 29/69
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