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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता को हम कई उदाहरणों से समझ सकते है, जैसे – सोने को एक अंगूठी का आकार दिया जाए, तो वह अंगूठी कहलाती है, किन्तु उसमें अंगूठी के साथ-साथ सोने की होने का भी गुण विद्यमान रहता है। एक ही व्यक्ति किसी का पिता, तो किसी का पति होता है। एक ही व्यक्ति में चाचा, मामा, भाई, भतीजे आदि अनेक रिश्ते सम्भव हैं। व्यक्ति के ये सभी रिश्ते अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं, उनमें से किसी एक का भी निषेध नहीं किया जा सकता है। इसी तथ्य का समाधान करते हुए आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैं"मनुष्य जब राग - भावना से प्रेरित होकर किसी वस्तु को देखता है, तब वह वस्तु उसे दूसरे रूप में दीखती है और जब वह उसी वस्तु को द्वेष-भावना से प्रेरित होकर देखता है, तब वह दूसरे रूप में दीखती है। 55 वस्तु एक है, पर राग-द्वेष के कारण उसे देखने का रूप बदल जाता है, दोनों ही रूप सही प्रतीत होते हैं । यही अनेकांतवाद की अनन्तगुणात्मक दृष्टि है। उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक या बहुआयामी है, अतः उसके प्रत्येक पक्ष की सम्भावनाओं को स्वीकार करना आवश्यक है और यह बात एक सर्वांगीण दृष्टि से ही सम्भव है । यह सर्वांगीण या व्यापक दृष्टि ही तनाव - प्रबन्धन की सफलता का मूल सूत्र है। तनाव - प्रबन्धन या तनावमुक्ति के लिए भी इस दृष्टि का विकास आवश्यक है।
दूसरे स्वरूप में अनेकांतवाद परस्पर विरोधी विचारधाराओं के समन्वय का प्रयास करता है। डॉ. सागरमलजी जैन का कहना है"वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता में उसकी बहुआयामिता और उसकी बहुआयामिता में उसकी अनन्तधर्मात्मकता सन्निहित है। यह एक सत्य है कि वस्तु में न केवल विभिन्न गुणधर्मों की प्रतीति होती है, अपितु उसमें अनेक विरोधी धर्मयुगल भी पाये जाते हैं । " आचार्य महाप्रज्ञजी ने अनेकान्त का एक सूत्र सह-प्रतिपक्ष दिया है। 7 बृहदारण्यकोपनिषद् में भी परस्पर विरोधी गुणधर्मों की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। उसमें ऋषि कहता है- 'वह स्थूल भी नहीं है और सूक्ष्म भी नहीं है।'
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SSS अनेकांत है तीसरा नेत्र - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 20
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अनेकांतवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी सिद्धान्त और व्यवहार, डॉ. सागरमल जैन, पृ. viii 557 अनेकांत है तीसरा नेत्र, आचार्य महाप्रज्ञजी, पृ. 12
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बृहदारण्यकोपनिषद्, 3/8/8
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