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________________ 278 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति लिए, दूसरों के हितों का अपलाप कर उनके जीवन में अशांति फैलाता है। ऐसा करके न तो वह स्वयं शांत रहता है और न ही दूसरों को शांत रहने देता है। आज शांति-स्थापना के नाम पर युद्ध लड़े जा रहे हैं। विवादों को मिटाने के लिए विनाश के प्रयत्न किए जा रहे हैं, किन्तु जहाँ परस्पर संघर्ष या युद्ध हो, नष्ट करने की प्रवृत्ति हो, वहां शांति या तनावमुक्तता कैसे हो सकती है? इसी कारण आज हर , व्यक्ति पर दबाव है, वह तनावग्रस्त है। यदि आज प्रत्येक व्यक्ति संकुचित एकांतदृष्टि को त्यागकर उसके स्थान पर अनेकांतदृष्टि को अपना ले, तो परस्पर कुछ समाधान या समझौता किया जा सकता है। यदि पारस्परिक-हितों में समाधान खोजा जाता है, तो किसी भी व्यक्ति को तनाव में रहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। अनेकता में एकता और एकत्व में अनेकत्व को देखना अनेकांत-दृष्टि है। कहने का तात्पर्य यही है कि एक वस्तु में अनेक गुण-धर्म होते हैं, उसके सभी गुणधर्मों को स्वीकार करना अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद का स्वरूप व अर्थ - ' प्राचीन समय से ही अनेकांत को जैनदर्शन का मुख्य सिद्धांत माना गया है। यद्यपि मूल आगमों में तो अनेकान्तवाद की विशेष चर्चा नहीं है, किन्तु भगवतीसूत्र में गौतम के द्वारा पूछे गए कुछ प्रश्नों के भगवान् महावीर ने जो उत्तर दिए हैं, वे अनेकांतवाद की दृष्टि से ही दिए गए है। केवल जैनों के भगवतीसूत्र में ही नहीं, अपितु प्राचीनतम वेदों, उपनिषदों में भी इस अनेकांतदृष्टि के उल्लेख उपलब्ध हैं, जिनके प्रमाण आगे दिए जाएंगे। _ अनेकांतवाद का मूल प्रयोजन सत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने एवं समझने का प्रयत्न है। जैनदर्शन में वस्तु या सत् को अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक माना गया है। वस्तु की इस अनंतधर्मात्मकता एवं अनैकान्तिकता को स्वीकार करना ही अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद को हम तीन आधारों पर समझ सकते हैं प्रथमप्रत्येक वस्तु या सत् में अनेक गुणधर्म है, दूसरे - प्रत्येक वस्तु में विरोधी गुणधर्म भी होते है, तीसरे -वस्तु की अनेकांतिकता। 554 भगवतीसूत्र - 7/3/273 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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