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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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का भी हेतु है। कर्मबन्ध आत्मा की जो स्थिति है, वही स्थिति तनावयुक्त आत्मा की भी है। यह हिंसा ही वस्तुतः बन्धन है, यही ग्रन्थि है यही मोह है, यही मार-मृत्यु है और यही नरक है। अतः, तनावमुक्ति अहिंसा की स्थिति में ही संभव है। अहिंसक चेतना ही तनावमुक्त होती है, हिंसक चेतना के मूल में कहीं-न-कहीं भय रहा होता है और वह भय एक तनाव है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- यदि तुम अभय चाहते हो, तो दूसरों को भी अभय प्रदान करो। भय हिंसा है और अभय अहिंसा है। भययुक्त चित्त ही हिंसा को जन्म देता है। व्यक्ति ने भय के कारण ही हिंसक-शस्त्र बनाए हैं, भय के कारण ही वह असत्य बोलता है, भय के कारण ही माया भी करता है, तो भय के कारण ही क्रोधी व दुःखी भी होता है, अतः भय से मुक्त होने पर भी हिंसा से मुक्त हुआ जा सकता है। कहा गया है- दूसरों को भय से मुक्त करो, क्योंकि भय से हिंसा जन्म लेती है और अभय से अहिंसा। अनेकांत का सिद्धांत - "जेण विणा लोगस्य ववहारो सव्वहा ण निव्वडइ। तस भुवणेक्कागुरूणो, णमो अणेगंतवायस्स।।553
अर्थात्, जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वहन भी सर्वथा सम्भव नहीं है, या जिसके बिना जगत् का व्यवहार नहीं चलता, उस अनेकांतवाद को मैं नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि अनेकांतवाद एक व्यावहारिक-दर्शन है। यह संसार व्यवहार से चलता है और व्यक्ति का व्यवहार ही व्यक्ति की मानसिकता का या तो विकास करता है या उसे संकुचित कर देता है। व्यक्ति के व्यवहार से उसमें तनाव की उत्पत्ति होती है और तनाव से ही व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होता है। आज राष्ट्र हो या प्रांत, समाज हो या परिवार, व्यष्टि हो या समष्टि, सभी में पारस्परिक-मतभेद दिखाई देता है। प्रत्येक व्यक्ति के विचारों और हितों में अन्तरं होने के कारण सभी व्यक्ति तथ्यों को अपनी-अपनी दृष्टि से व्याख्यायित करते हैं। आज व्यक्ति की दृष्टि एकपक्षीय और संकुचित हो गई है। यही एकांत दृष्टि विश्वशांति को भंग कर रही है। हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख-शांति लाने के लिए, अपने हितों को साधने के
552 एस खलु गंथे एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु षारएं। - आचारांगसूत्र-1/1/2 553 सन्मति-तर्क-प्रकरण - 3/70
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