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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
प्रश्नव्याकरणसूत्र में इससे सम्बन्धित कुछ निम्न सूत्र मिलते हैं - " कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति,"
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अर्थात्, कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोभ से हिंसा करते हैं और कुछ लोग आसक्ति से हिंसा करते हैं। 547 पाणवहो चंडो, रूदो, सुद्दो (क्षुद्र), अणारियो, निग्घिणो, निसंसो, महब्मयो ... ।
अर्थात् प्राणवध (हिंसा) चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर है और महाभंयकर है।548 जहाँ तक तनावों को प्रश्न है, उनका जन्म राग-द्वेष कषायों से होता है, अतः तनाव भी एक प्रकार से स्वस्वरूप की हिंसा है, क्योंकि तनाव भी विभावदशा है। विभावदशा में व्यक्ति जो कुछ करेगा, वह सब हिंसा के अंतर्गत ही आता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो बाह्य-हिंसा या दूसरों की हिंसा तनावपूर्ण स्थिति में ही होती है और यह तनावपूर्ण स्थिति स्वयं अपने-आप में हिंसा ही है ।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि तनावों का मूल कारण तो स्व-स्वरूप की हिंसा है। अतः हिंसा का सिद्धांत तनाव - उत्पत्ति का मूलभूत कारण है, जबकि अहिंसा का सिद्धांत तनावमुक्ति का कारण है। जैनदर्शन के अनुसार, तनावों से निवृत्ति ही अहिंसा है और तनावों की प्रवृत्ति ही हिंसा है, अतः तनावमुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए व्यक्ति को हिंसा का परित्याग करना होगा, क्योंकि बिना अहिंसा के तनावमुक्ति सम्भव नहीं है ।
आचारांगसूत्र में कहा गया है कि 'आतुरा परितावेंति 549आतुर व्यक्ति अर्थात् तनावग्रस्त व्यक्ति ही दूसरों को कष्ट देता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो हिंसा का जन्म तनावपूर्ण स्थिति में होता है। जहाँ हिंसा है, वहाँ तनाव है। आचारांगसूत्र में दुःख (तनाव) का कारण हिंसा को ही बताया है। इसमें लिखा है- "आरंभजं दुक्खमिणं," 50 अर्थात् यह सब दुःख आरम्भज है, हिंसा में से उत्पन्न होता है। 'कम्ममूलं च जं छणं," अर्थात् कर्मबन्ध का मूल हिंसा है। जो कर्मबन्ध का मूल है, वही तनाव
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प्रश्नव्याकरणसूत्र -1/1
वही - 1/1
आचारांगसूत्र - 1/1/6 ast-1/3/1
वही - 1/3/1
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